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________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] उमास्वाति का तत्त्वार्थसत्र उसका परिणाम जीवन में क्रमशः और अन्त में क्या तम्य । दसवें अध्याय में १० केवलज्ञान के हेतु और आता है ? ये सब विचार छठे से दसवें अध्याय तक मोक्ष का स्वरूप । ११ मुक्ति प्राप्त करने वाले आत्माकी की चारित्रमीमांसा में आते हैं। ये सब विचार जैन किस गति से कहाँ गति होती है उसका वर्णन । दर्शन की बिल्कुल जुदी परिभाषा और सांप्रद यिक प्र- तुलना- तत्वार्थ की चारित्रमीमांमा प्रवचनणाली के कारण मानों किसी भी दर्शनके साथ साम्य सार के चारित्रवर्णन से जदी पड़ती है; क्योंकि इसमें न रखत हों ऐमा आपाततः भास होता है; तो भी तत्वार्थ की सदृश पासव, संवर आदि तत्वों की चर्चा बौद्ध और योग दर्शन का बारीकी (सूक्ष्मता ) से नहीं; इसमें तो केवल माधु की दशा का और वह भी अभ्यास करने वाले को यह मालूम हुए बिना कभी दिगम्बर साधु के खास अनुकूल पड़े ऐसा वर्णन है। नहीं रहता कि जैन चारित्रमीमांसा का विषय चारित्र- पंचास्तिकाय और समयमार में तत्वार्थ की सदृश ही प्रधान उक्त दो दर्शनों के साथ अधिक से अधिक और आम्रव, संवर, बंध आदि नत्वों को लेकर चारित्रमीअद्भुत रीतिसे साम्य रखता है। यह साम्य भिन्न भिन्न मांसा की गई है, तो भी इन दो के बीच अन्तर है और शाखाओं में विभाजित, जुदी जुदी परिभाषाओं में वह यह कि तत्वार्थ के वर्णन में निश्चय की अपेक्षा संगठित और उन उन शाखाओं में होनाधिक विकास व्यवहारका चित्र अधिक खींचा गया है, इसमें प्रत्येक पाते हुए भी असल में आर्य जाति के एक ही प्राचार- तत्व से सम्बंध रखने वाली सभी बातें हैं और त्यागी दायका-आचार-विपयक, उत्तराधिकार का-भान गृहस्थ तथा माध के सभी प्रकार के प्राचार तथा निकराता है। यम वणित हैं जो जैनसंघका संगठन सूचित करते हैं। चारित्रमीमांसा की मुख्य बातें ग्यारह हैं। छठे जब कि पंचाम्तिकाय और समयमार मे वैसा नहीं, अध्याय में-१ आम्रव का स्वरूप, उसके भेद और इनमें तो पासव, संवर आदि तत्वों की निश्चयगामी किस किस प्रकार के आसवसंवन से कौन कौन कर्म तथा उपपत्ति-वाली चर्चा है, इनमें नत्वार्थ की सदृश बंधते हैं उसका वर्णन । मातवें अध्याय में व्रतका जैन गृहस्थ तथा साधु के प्रचलित वन, नियम और स्वरूप, व्रत लेने वाले अधिकारियों के भंद और वन आवागें आदि का वर्णन नहीं। की स्थिरता के मार्ग । ३ हिंमा आदि दोपों का स्वरूप। योगदर्शन के साथ प्रस्तुत चारित्रमीमांसा की तु४ व्रत में संभवते दोप । ५ दान का स्वरूप और उसके लना को जितना अवकाश है उतना ही यह विषय तारतम्य के हेतु । आठवें अध्याय में-६ कर्मबन्ध के रमप्रद है; परन्तु यह विस्तार एक स्वतन्त्र लेखका विमूल हेतु और कर्मबन्ध के भेद । नवमें अध्याय में- पय होने से यहाँ उसको स्थान नहीं, ना भी अभ्यासि७ संवर और उसके विविध उपाय तथा उसके भेद- यों का ध्यान खींचने के लिये उनकी स्वतन्त्र तुलना प्रभेद । ८ निर्जरा और उसका उपाय । ९ जुदे जुदे शक्ति पर विश्वाम रख कर नीचे संक्षेप में एक तुलना अधिकार वाले साधक और उनकी मर्यादा का नार- करने योग्य सार बातों की सूची दी जाती है:
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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