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________________ ४०३ बैशाख, ज्येष्ठ, वोरनि०सं० २४५६] तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति माता हान होनेसे इस वंशको अपना ही कर लिया कारोंने वा० उमाम्वाति को तटस्थ परम्परा का समझा और इस वंशमें जो कुछ थोड़ी बहुत तत्वज्ञान-संबंधी होता तो वैसे मतभेद वाले स्थलों में अधिकांशतः या आचार-सम्बन्धी भिन्न मान्यताएँ थीं उन्हें भी मत- इतना ही कहते कि इस विषयमें ऐसा भी मतान्तर है। भंट के रूपमें अथवा सिद्धान्तके रूपमें अपना कर अपने जाति और जन्म-स्थान में शामिल कर लिया। सत्र और भाष्य दोनों का प्रमाणभूत मान कर प्रशस्ति में स्पष्टरूपस जाति-विषयक कोई कथन उनके ऊपर टीका लिखने वाले श्वेताम्बर आचार्यों की नहीं, तो भी माताका गोत्रसचक 'वात्सी' नाम इसमें दृष्टि में से वा० उमास्वातिकी तटस्थ परम्परा सम्बंधी मौजद है और 'कौभीषणि' यह भी गोत्रसूचक विशेपनिहासिक सत्य भला दिया गया, जिससे वे सब यही पण है। गोत्र का यह निर्देश उमाम्बातिके ब्राह्मण मानते कि वाचक तो हमारे जैसा रूढ श्वेताम्बरीय हा जातिके होने की मचना करता है. ऐमा कहना गात्रकर हमारे सदृश ही आगमपरम्परा का धारक होना परम्पराको ठेठम पकड रखने वाली ब्राह्मण जातिक चाहिये । इससे भाष्यके ऊपर टीका लिखते हुए जहाँ वंशानक्रमक अभ्यामी को शायद ही सदोष मालम जहाँ श्वेताम्बर आचार्यों को अपनी प्रचलित परम्परा पढे । वाचक उमम्बाति के जन्मस्थान-रूपस प्रशस्ति की अपेक्षा भिन्नता मालम पड़ी है वहाँ उन्होंने वाचक __ न्योग्राधिका' ग्राम का निर्देश करती है, यह न्यगाको या तो 'मत्रानभिज्ञ ' और 'प्रमत्त ५६ जैस। शब्दों मे सत्कारित किया है और या यह वस्तु प्रक्षिप्त धिका स्थान कहाँ है, इसका इतिहास क्या है और इम अथवा आगम मे जुदी है, इतना ही कह कर संतोष मम अथवा आगम से जदी. इतना हीका का समय उसकी क्या स्थिति है। यह सब अंधकारमें है। ५. पकड़ा है; और कहीं तो अपनी चाल परम्परा इसकी शोध करनी यह एक रमका विषय है। नत्त्वार्थकी अपेक्षा जदा ही वर्णन देख कर यहाँ तक भडके मृत्रके रचनाम्थान-रूपम प्रशस्तिमें 'कुममपर' का है कि, भाष्यके इस स्थल का असली भाग किमी निर्देश है । यही कुसुमपर इस समय विहार का पटना के द्वारा नष्ट हो गया है और उपलब्ध भाग प्रक्षिप्त है है। प्रशस्तिमें कहा गया है कि विहार करत करत पटनं एमा कह कर उन्होंने यथार्थ पाठको प्रक्षिप्रपने की मं तत्त्वार्थ रचा। इस परम नीचे की कल्पनाएँ स्फुरित चांति से फेंक दिया और उसके स्थान पर अपनी पर होती हैम्परा के अनुसार आगमानसारी पाठ जमा होना । उमास्वातिक समयमें और उससे कुछ पहलेचाहिये वैसा बना कर असली भाष्य के रूपमें उम पाळ जैन भित्र पाछ मगध जैन भिक्षुओं का खूब विहार था, ऐसा पथिन कर दिया ५८ ! यदि रूढ श्वेताम्बरीय टीका होना चाहियं और उम तरफ जैन संघ का बल तथा ५६. "नेदं पारमषप्रवचनानमारि भाष्यं किं नहि आकर्पण भी होना चाहिये। प्रमतगीतमेनन् ! वाचको हि पवित् कथमेवंविधगार्प- विशिष्ट शानक लेखक भी जैन भिक्षुक अपनी विसवादि निबध्नीयात् ? सूत्रानवबोचादुपजातभ्रान्तिन अनियन स्थानवाम की परंपरा को बराबर कायम राब राचतमतदुवचनकम् । ६,६ का भाष्यात ५०२०६ रहे थे और ऐसा करके उन्होंने श्री लको 'जंगम ५७ देखो, ३,६ तथा ६,४६ के भाष्यकी देने वृत्तियां। विद्यालय बना दिया था। ५८ "एतच्चान्तरद्वीपकभाज्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र ' ३ विहारस्थान पाटलीपत्र (पटना) और मगर कैरपि दुर्विदग्धै येन षण्णवतिरन्तरद्वीपका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनार्ष चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु पट् देशसे जन्मस्थान न्यगोधिका सामान्य तौर पर बहुत पंचाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात्x xx। दर नोनहीं होगा। -३,१५ की भाष्यवृत्ति पृ. २६७
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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