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________________ अनेकान्त [बर्व १, किरण ४ MNNNN विद्युच्चर ले-श्री जैनेन्द्रकुमारजी (११) प्राप्तिको रास्ते में ही छोड़ कर वह क्यों अपनी चेष्टाएँ पन कुमारके बराबर ही पलंग पर बैठी है। वह अप्राप्य और दुष्प्राप्य पर ही गाड़ता है ? चेष्टाएँ जब अपनी योग्यतामें संदेह नहीं करती । विनय और कनक व्यर्थ होती हैं, तभी वह क्यों सचेष्ट होता है ? या ने चरणों के पास बैठ कर ही अपना स्थान अधिकृत चेष्टाको व्यर्थ करने के लिये ही सचेष्टता की आवश्यकरना उचित समझा है। और रूप, विनय और कनक कता है ? के बीच में, मठ मूंठ अपना मुँह छिपा कर, ऐसी सि- पर रूप अपने आवेष्टन के भीतर यों ही बंद मटती-हुई बैठी है कि मानों पाधी विनय और आधी रहेगी । प्यास को उकसा कर खुद लुक रहना, इस कनक में बॅट कर, लुप्त हो रहना चाहती है। तरह उत्सुकता को उत्सुक रखना और खिमात रखना. सब स्तब्धता है। समय भी, जाते-जाते, मानों विधाता जिसको रूप देता है उसको यह स्वभाव भी उत्सुक, अवसम इनकी बातचीत सुनने की प्रतीक्षा में क्यों देता है-कुमार खिझ-खिझ कर यह सोचते हैं। हर गया है। -कैसी जगत से चारों ओर से प्रावरण कस कर बालाओं को बोल सूझता नहीं; और कुमार रूप लपेट है कि उँगली के नख का आभास भी तो नहीं पर विस्मिन हो रहे हैं। कैसी बहर यह रूप मिल सकता। -वह उंगली का नव-नन्हा-नन्हा, जब दखना और दीखना चाहिये तभी मुँह दुबकाती गुलाबी सा-कैमा होगा? है ! देखती नहीं तो अपने को तो दीखने दे, अपने को इधर रूप का दुबकना निरपेक्ष है, यह हम नहीं तो दिखाये ! पर वह इन सब मोहनीय व्यापारों से, मानेंगे । वह तो कुमार के लिये ही यों दुबक रही है. अपने अल्हड़पन में, विमुख होकर बैठ रही है ! - उतनी कुमार से लुकने के लिये शायद नहीं । कोई कुमार रूप के इस रूप पर विमुग्ध और मानों लुब्ध उसके भीतर से कह रहा है-कुमार की दृष्टि उसी के है। बिमोह और लोम से छुट्टी पायें तब तो कुछ कह सिर पर पड़ी भोनी के सिरे के चारों ओर मडरा रही पायें । उनकी दृष्टि शेष सब भार से हठात् फिसला है, कि कैसे भी भीतर पाने का कहीं मौका मिल जाय । फिसल कर, भवगंठनाबस उसी मुख की भोर जाती है इसी विश्वास में रस है, और रूप उसी रस को यों जो अपने को प्राणपण से उस दृष्टिसे मोमल रखना दुबकी-दुबकी चूस रही है। वह भीतर-ही-भीतर बड़ी चाहता है । पय, विनय और कनक जो भामंत्रण मगन है। उसका सारा मन जैसे कुमार के मन के देती हुई, भोज्य से सजा कर अपना थाल लिये खड़ी भीतर पैठ रहा है और कुमार के मन की खिजलाहट है, जो थाल सामने ही, प्रणय से अभिषिक्त और और उत्कंठा को पाकर उसके साथ खेलने, उसे खिभाकाँचासे उदीप्त होते हुए, बघरे हैं जो बस यह झाने और रिझाने, में आनंद ले रहा है। दुनिया का जोहरो किकबवेस्सीकत और धन्य हों.- मल्य पाकर भी बह घंघट नहीं उपाडेगी, ती. उघड्ने पर कुमार की दृष्टि उन पर पड़ती है, पर हट-इट कर, मानन्द बिखर जायगा । वह अपने परिवेष्टन से परिइस रूपके अवगुंडन का पार पाने की हा करने के बड करके उसे संचय करने में लगी है। लिये भागती है। पर देखें वो कुमार कैसे हैं १-यो वो लुकी-छिपी यह मनुष्य का स्वभाव कैसा है ? सहज-प्राप्य की नपरखे एकसे अधिक पारकम-क्यादा उन्हें देख चुकी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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