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________________ फाल्गुन, वीरनि० सं० २४५६] ममन्तभद्राश्रमविज्ञप्ति नं०४ २५७ (१६) विद्यानंदमहोदय-- यह विद्यानंदाचार्य का सिदि पद्धतिर्यस्य टीका मंवीक्ष्य भिक्षुभिः। गन्ध है, जिसका उल्लेख खुद उनके गन्थोंमें भी टीक्यते हेलयान्यषां विषमापि पदे पदे।। पारि०.२५॥ पाया जाता है। जैसा कि 'अष्टसहस्री' के निम्न (२१) सुलोचना - यह सुन्दर कथा महासेन प्राचार्यवाक्यसे प्रकट है : रचित है । जिनसेन-कृत 'हरिवंशपुराण' में इसका 'इति तत्वार्थलंकारे विद्यानन्दमहोदये च उल्लेख इस प्रकार है- -पारि०, २५॥ प्रपंचनः प्ररूपितम्' -पारि०, ५०) महासेनस्य मधुरा शीलालंकारधारिणी। (१७) कर्मपामत-का- यह श्रीपुष्पदन्त-भूतब- कथा न वर्णिता केन वनितेव सलोचना ।। ल्याचार्य-विरचित कर्मप्राभूत (षट्खण्डागम) के (२२) वरांगचरित-यह पापगणके कर्ता रवि. पाँच खण्डोंकी ४८ हजार श्लोकपरिमाण टीका है। षेणाचार्य-कृत है । उक्त हरिवंशपुराणमें पद्मपराण इस टीकाके का स्वामीसमन्तभद्र हैं इन्द्रनन्दि- के बाद इसका भी उल्लेख निम्न प्रकारसे किया है कृत श्रुतावतारमें इसका उल्लेख इस प्रकार है:- और इसे अच्छा मनोमोहकचरित लिखा हैश्रीमान्समन्तभद्रस्वामीत्यथ सोऽयधीत्य तंद्विविधं। वरांगनेव सर्वांगै गंगचरितायक्षाफ । सिद्धान्नमतः षट्खण्डागमगतखंडपंचकस्य पुनः॥ कस्य नोत्पादयेद् गाथपनुरागं स्वगोचरम् ।। अष्टौचन्वारिंशत्सहस्रसग्रंथरचनया युक्तां। -पारि०, २५) ... (२३) मागप्रकाश- यह ग्रन्थ किस विद्वान् की विरचितवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ।। रचना है, यह अभी तक मालम नहीं हो सका। -पारि०, १०० परंतु पद्मप्रभ मलधारिदेव ने नियम सारकी टीका (१८)सन्मति-टीका-यह सिद्धसेन के सन्मतितर्क में इसके कितने ही पद्योंको 'उक्तंच मार्गप्रकाशे' नामक गन्थकी टीका है। इसके रचयिना सन्म आदि वाक्योंके साथ उद्धृत किया है और उन पर ति प्राचार्य हैं, जिसका उल्लेख वादिराजमरि के में यह प्रन्थ अच्छे महत्वका मालूम होता है। एक पार्श्वमाथचरित में इस प्रकार है: पच नमूने के तौर पर इस प्रकार हैनमः सन्मतये तस्मै भव कूपनिपातिना कालाभावेन भावानां परिणामस्तदन्तरात् । सन्मतिर्विवृता येन सुखधामप्रवेशिनी।।-पारि०,१००) न द्रव्यं नापि पर्यायः सर्वाभावः प्रसज्यते ॥ -पारि०, २५) (१९) जीवसिद्धि- यह दूसरा 'जीवसिद्धि' ग्रंथ (४) श्रुबिन्दु-यह प्रन्थ चन्द्रकीर्तिप्राचार्य-रवि अनन्तकीर्ति आचार्यका बनाया हुआ है । उक्त त है, ऐसाश्रवणबेलगोलके उक्त शिलालेख नं०५४ पार्श्वनाथचरित में इसका उल्लेख इस प्रकारसे है- से पाया जाता है । यथाःपात्मनेवादिनीयेन जीवसिदि निषध्नता। वयः श्रुतविन्दुनावारुधे भावं कशाग्रीपया....। . अनन्तकीर्तिना मुक्तिरात्रिमागवलक्ष्यते ॥ स्तं वाचार्चत चन्द्रकीर्तिगणिनं चन्द्राभकीर्निबुधाः।। । -पारि०,२५) नियमसार की पद्मप्रभ-विरचित टीका, 'जयवि (२०) सिद्धिपति टीका-यह टीका वीरसेन विजयदोषो' नाम का जो एक पद्य 'तथाचोकं श्रुत आचार्यकी बनाई हुई है, जिसका उल्लेख गणभद्रा- बन्धों' शब्दोंके साथ उद्धृत मिलता है वह संभवतः चार्य के उत्तरपुराणमें निम्न प्रकारसे पाया जाताहै- इसी अन्य का जान पड़ता है। -पारि०, २५)
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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