SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५६ (८) जम्पनिर्णय -- 'तस्वार्थ-लोकवार्तिक' के निम्न उल्लेखसे पाया जाता है कि यह ग्रंथ ६३ वादियोंके विजेता श्रीदत्ताचार्य का बनाया हुआ है और इस लिये बहुत प्राचीन हैद्विकारं जग जम्पं वप्रातिभगोचरं । त्रिgर्वादिनां जेता श्रीसो जम्पनिर्णये ॥ पारि०, ५०) (९) वादन्याय --- यह प्रन्थ कुमारनन्दि आचार्य का अनेकान्त बनाया हुआ है। इसके तीन पद्यों को विद्यानन्द आचार्य ने अपनी 'पत्रपरीक्षा' में निम्न वाक्यके माथ उद्धृत किया है "तथैव हि कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये निगदितत्वात्तदाह - " पारि०, ५०) (१०) प्रमाण संग्रह - भाष्य -- यह अनन्तवीर्य आचार्य 1 का रखा हुआ 'प्रमाणसंग्रह' ग्रन्थ का भाष्य है स्वयं अनन्तवीर्य ने अपनी 'सिद्धिविनिश्चय-टीका' इसका कितने ही स्थानों पर उल्लेख किया है। यथा--' इति चर्चितं प्रमाणसं ग्रहभाष्ये" । " इत्युक्तं प्रमाणसंग्रहालंकारे । " " शेषमत्र प्रमाण संग्रह भाष्यात्मस्येयं । " "ईश्वरस्य सकलोपकरणादिज्ञानं प्रमाणसंग्रहभाष्ये निरस्तं" में - पारि०, ५०) (११) प्रमाणसंग्रह, स्वोपज्ञभाष्यसहित - यह मूल ग्रन्थ अकलंक देव-कृत है, अकलंकदेवके स्वोपश भाष्य की भी इस पर संभावना पाई जाती है। इसी मूल ग्रन्थ पर अनन्तवीर्यका उक्त भाष्य है। - पारि०, ५०१ (१२) सिद्धिविनिमय, स्वोपज्ञ भाष्यसहित यह भी कलंकदेवका ग्रन्थ है जिस पर अनन्तवीर्य की [ वर्ष १, किरण ४ टीका उपलब्ध है । परन्तु टीकाकी उपलब्ध प्रतिके साथमें मूल ग्रन्थ लगा हुआ नहीं हैं-मूल कारिकाओंके आद्याक्षर दिये हैं। मूल पर स्वोपज्ञभाष्यका होना भी उक्त टीका से पाया जाता है। - पारि०, ५०) (१३) न्यायविनिश्चय, स्वोपज्ञ भाष्यसहित - यह प्रन्थ भी अकल देव कृत है। इस पर वादिराजसूरि की टीका मिलती है परन्तु उससे मूल ग्रंथ पूरा उपलब्ध नहीं होता- कोई कोई कारिका ही पूरी मिलती है। इस पर भी खुद अकलंकदेव - कृत भाष्य की संभावना है। पारि०, ५०) (१४) त्रिलक्षणकदर्शन-यह ग्रन्थ स्वामी पात्रकेमरीका रचा हुआ है। सिद्धिविनश्चय - टीका और न्यायविनिश्चय-विवरण में इसका उल्लेख है। इसका विशेष परिचय 'अनेकान्त' की दूसरी किरण में दिया है । वादिराजसूरिने न्यायवि० में लिखा है 'त्रिलक्ष एकदर्थने वा शास्त्रे विस्तरेण श्रीपात्रकेसरिस्वामिना प्रतिपादनादित्यलमभिनिवेशेन । " - पारि०, २५) (१५) स्याद्वादमहार्णव - यह ग्रन्थ कौनसे आचा for बनाया हुआ है, यह अभी तक मालूम नहीं हो सका । परंतु न्यायविनिश्चय-विवरण में बादि - राजने इसके एक वाक्यका निम्न प्रकार से उल्लेग्व किया है“यथोक्तं स्याद्वादमहार्णवे -- सुखमाहादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनं । शक्तिः क्रियानुमेया स्या नः कान्तासमागमे ।।" यह पद्य 'अष्टसहस्री' और 'सन्मतितर्क' के भाष्य में भी, बिना किसी गून्थनामके, उद्धृत पाया जाता है और इससे ग्रन्थकी प्राचीनता तथा महता प्रकट होती है । - पारि०, २५)
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy