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________________ ५८८ अनकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ ४ असलीपना-उक्त दोनों सूत्रपाठोंमें असली थोड़ी देर युक्ति के लिये यदि ऐसा मान लिया जाय कौन और फेरफार प्राप्त कौन? यह प्रश्न सहज उत्पन्न कि यह स्वोपज्ञ नहीं तो भी इतना निर्विवादरूपसे कहा होता है। इस वक्त नकके किये हुए विचार परसे मुझे जा सकता है कि भाष्य सर्वाथसिद्धिकी अपेक्षा प्राचीन निश्चय हुआ है कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ ही असली है तथा कोई रूढ़ श्वेताम्बर्गय नहीं ऐसे तटस्थ विद्वानअथवा वह सर्वार्थमिद्धिमान्य सूत्रपाठकी अपेक्षा अ. द्वाग लिखी गई तत्वार्थसत्र परकी पहली ही टीका है; सली सुत्रपाठ के बहुन ही नज़दीक (निकट ) है। क्योंकि वह सर्वार्थसिद्धि जैसी साम्प्रदायिक नहीं। इस मत्रपाठ-विषयमें इतनी चर्चा करने के पश्चान तत्वका ममझने के लिये यहाँ तीन बातोंकी पर्यालोचना अब उनके उपर सर्व प्रथम रचे हुए भाग्य नथा की जाती है-५ शैलीभेद २ अर्थविकास और ३ सर्वार्थसिद्धि इन दो टीकाओंके विषय में कुछ विचार साम्प्रदायिकता। करना आवश्यक जान पड़ता है। भाष्यमान्य सूत्रपाठ- शलीभद-किसी भी एक ही सुत्र पर के भाष्य का असलीपना अथवा अमली पाठके विशेष निकट और उमकी मर्वार्थमिद्धि मामने रख कर तुलना की होना तथा पूर्व कथनानुसार भाष्यका वा० उमास्वाति दृष्टिम देखने वाले अभ्यामीको ऐमा मालम पड़े बिना कत कपना दिगम्बर परंपरा कभी भी स्वीकार नहीं कभी नहीं रहता कि मर्वार्थसिद्धिसे भाष्य की शैली कर सकती.यह स्पष्ट है क्योंकि दिगम्बर परंपरामान्य प्राचीन है तथा पद पद पर सर्वार्थसिद्धिम भाष्यका मभी तत्वार्थ परकी टीकाओका मूल आधार सर्वार्थ- प्रतिबिम्य है । इन दोनो टीकापो से भिन्न और दोनों मिद्धि और उसका मान्य मत्रपाट ही है। इसमें भाष्य से प्राचीन ऐमी तीसरी कोई टीका तत्त्वार्थसत्र पर या भाग्यमान्य मत्र पाठको ही उमाम्बातिकतक हानका यथंट प्रमाण जब तक न मिले नब तक भाष्य मानते हुए उनके मान हुये मत्रपाठ और टीकाप्रथा और सर्वाथसिद्धि की तुलना करने वाले ऐसा कह का प्रामाण्य पग पूरा नहीं रहता। इससे किमी भी बिना कभी नहीं रहेंगे कि भाष्य को सामने रख कर स्थल पर लिम्वित प्रमाण न होते हुए भी दिगम्बर परं- सर्वार्थसिद्धि की रचना की गई है। भाष्य की शैली पराका भाष्य और भाष्यमान्य सत्रपाठक विषयमं प्रसन्न और गंभीर होते हुए भी दार्शनिकत्व की दृष्टि क्या कहना हो सकता है, उमे साम्प्रदायिकत्वका हरेक से सर्वार्थसिद्धि की शैली भाष्य की शैली की अपेक्षा अभ्यासी कल्पना कर सकता है । दिगम्बर परम्परा विशेष विकसित और विशेष परिशीलित है ऐसा निःसर्वार्थसिद्धि और उसके मान्य मत्रपाठको प्रमाण- सन्देह जान पड़ता है । संस्कृत भाषाके लेखन और सर्वस्व मानती है और ऐमा मानकर यह स्पट भूचित जैनसाहित्यमें दार्शनिक शैलीके जिस विकास के पश्चात् करती है कि भाष्य स्वोपा नहीं है और उसका मान्य सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है वह विकास भाष्यमें दिखाई सूत्रपाठभी असली नहीं । ऐसा होनस भाष्य और नहीं देता; ऐसा होने पर भी इन दोनों की भाषा में जो सर्वार्थसिद्धि योनीका प्रामाण्ग-विषयक बलाबल जॉ. बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव है वह स्पष्ट सूचित करता है कि पनंके बिना प्रस्तुत परिचय प्रधाही रहता है । भाष्य दोनोंमें भाष्य ही प्राचीन है। की म्बोपजनाके विषयमें कोई सन्देह न होते हुए भी उदाहरण के तौर पर पहले अध्यायके पहले सूत्रके
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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