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________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६ ] हो सकती है; पर जिसकी मृत्य होगी वह भी, वीर होने के कारण, आनन्दके साथ मृत्युका आलिंगन करेगा –यदि नहीं कर सकता तो वह वीर ही नहीं है। युद्ध में पीड़ा का जन्म तो तब होता है, जब वहाँ कायरता भी होती है । कायरता के कारण हार होती है एक पक्ष की जीत और एक की हार होना वास्तव में युद्धका अवश्यम्भावी फल नहीं है। एककी जीत और एककी मृत्यु होना तो दोनों की ही वीरगति है। इसमें हर किसी की भी नहीं । हार तो तभी होती है, जब कोई कायर होता है । कायरको प्राणोंका मोह होनेसे वह मरने से पहले ही प्राण- भिक्षा माँग लेता है, विजेता का दया-प्रार्थी बन कर स्वयं पीड़ित बनता है और उसे पीडक बननेका अवसर देता है । यदि वह प्रारण भिक्षा नहीं माँगता, तो या तो उसकी मृत्यु होती है, जिसमें कायर होनेके कारण बड़ी पीड़ा होती ( यह मृत्यु दुःखदायी होनेके कारण हार ही मानी जायगी) अथवा अपनी कायरता के कारण वह स्वयं पीड़ितका पद पाता है और विजेताको पीड़क बनाता है । यदि वह न तो प्राण- मिक्षा ही माँगता है और न मरता ही है, तो उसके लिए एक ही रास्ता और है । वह है भाग जाना । पर यहाँ भी वह पीड़ा पानसे नहीं बचता । वह सदा डरता रहता है, और अपने शत्रु से बचने के लिए बड़ी बड़ी आपत्तियाँ महता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ कायरता है वहीं पीड़ा है। सिंहको देख कर हिग्गा यदि भयभीत न हो arrier भय छोड़ कर वह वीर बना रहे, तो सिंह के द्वारा खा लिए जाने पर भी उसे कोई दुःख नहीं हो सकता। वह लड़ता-लड़ता, हँसी-खुशी, प्राण देगा। यह स्पष्ट है कि जिस समाजमें वासनायें अधिक बढ़ी चढ़ी होंगी वह समाज निर्बल भी अधिक होगा, पीडितोंका पाप ३७९ कायर भी अधिक होगा, और पीड़ित भी । जीवित रहने, धन- ऐश्वर्य भोगने, स्त्री- पति-पुत्र बन्धु आदि प्रेमी-जनोंके साथ रहकर सुख भोगने इत्यादिकी वासनसे किसी समाज के प्राणी जितने ही अधिक जकड़े हुए होंगे, वे उतने ही पीडित होंगे। फिर यदि उन पर अत्याचार किया जाता है, तो यह उन्हींके आमं त्रण से होता है; वे ही इस पापके मूल कारण हैं, वे ही पीड़कों की सृष्टि करते हैं । जहाँ वासनायें अधिक होगी वहाँ सत्य-प्रेम, न्यायप्रेम नहीं टिक सकता । वहाँ स्वार्थका बाजार गर्म रहता है। स्वार्थके साथ असत्य और अन्यायका प्रवेश होता ही है । अपना काम बनाने के लिए, चाहे दूसरेका काम बिगड़े ही, लोग घूँस देते हैं, खुशामदें करते हैं, और ऐसे-ऐसे कामतक कर डालते हैं, जिन्हें कोई स्वाभिमानी पुरुष स्वप्न में भी नहीं सोच सकता । वासनामे कायरता, और कायरता पतन ! सत्य और न्याय तो दूर ही यह दृश्य देख कर दयाके म् बहाने है 1 यद्यपि वामनाश्रीको सर्वथा नाश कर देने वाले जीवन-मुक्त मनुष्य संसार में सर्वथा दुर्लभ नहीं हैं, तो भी उनकी बात इस समय छोड दीजिए। हम उन्हीं की बात कहते हैं जिन्होंने अन्यायके आगे सिर न मुकाकर, अपनी वासनाओं का गुलाम क्षुद्र बने रहना स्वीकार न करके, संसारमे अपना नाम श्रम कर दिया है। गणा प्रतापनं पीड़क के विरुद्ध अपना मि उठाकर न्याय सत्यके लिए अपने सारे सुखाकी तिलाजलि दी। पर क्या वास्तव में वह दुम्बी था ? कदापि नहीं । अन्याय सहन करने की पीड़ा उसके लिए उन शारीरिक कष्टोंस कहीं अधिक थी, जो उसने और उसके परिवारने जंगल-जंगल भटकते हुए महं थे। वह
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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