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________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६. पीडितों का पाप [ लेखक-श्री सुमंगलप्रकाशजी, शास्त्री गानी मभी सुनत १ल होकर मनुष्य कायर __ 'अनेकान्त' की चौथी किरणमें 'जैनोंकी अहिंसा' : आये हैं कि श्र. : शीर्षकके नीचे एक वाक्य यह भी दिया हुआ है कि : बन जाता है तभी वह त्याचार्ग-पीदक-पापी "लौकिक स्वार्थवश स्वाभिमानको को खोकर पीड़कों को निमन्त्रण होते हैं । पीड़ित तो दसरोंके अत्याचार सहना भी हिंसा (पाप) हैं" देता है और पीड़का सताये जाते हैं, वे पाप : यद्यपि वहाँ पर इसका कुछ स्पष्टीकरण भी किया गया : की सृष्टिका कारण बन मे बचे हुए हैं। ईश्वर है, परंतु वह इतना संक्षिप्त है कि साधारणपाठक अभी : भी जाता है। उन्हीं की सहायता क : तक भी उसके अभिप्रायको यथेष्ट रूपमें समझ नहीं। शंका हो सकता रता है। किन्तु आज मके होंगे । अस्तु; इस वाक्यमें जो सिद्धान्त मंनिहित : है कि यदि सभी वीर है, यह लेख उसकी एक दूसरे ही रूपमें अच्छी सुदर यदि मैं यह कहूँ कि हो जाये तब भी मार : तथा हृदयग्राही व्याख्या प्रस्तुत करता है और इसी : वास्तविक पापी पीड़ित : लिये आज इस 'त्यागभूमि' से-जहाँ यह अभी हाल : : काट मची रह सकती ही हैं, तो पाठकोंको : चैत्र-वैशाखके संयुक्तांक में प्रकट हुआ है-उद्धृत : है, युद्धका बाजार गम भाधर्य न करना चा- : करके अनेकान्तके पाठकोंकी सेवामें रक्खा जाता है ।। रह सकता है-फिर यह लेख कितना मार्मिक तथा महत्वका है उसे बतलाने : पीड़ा का नाश कहाँ वास्तवमै दुःख वे : की जरूरत नहीं, सहृदय पाठक स्वर्ग ही पढ़ कर मालम: हुआ ? पर वास्तवमें : कर सकेंगे। हाँ, इतना जरूर बतलाना होगा कि 'इस : ही पाते है, जो वास : के लेखक श्रीसुमंगलप्रकाशजी काशी-विद्यापीठ के एक : देखा जाय तो दोवीरोमें नामोंके बोझसे निबेल : उत्साही शास्त्री हैं, और नमक कानुन भंग करने के लिये : युद्ध होने पर पीडाका होकर कायर बन जाते : महात्मागांधीके नेतृत्वमें जो पहला जत्था रवाना हुआ था : जन्म होता ही नहीं। हैं। जी वीरवर: उमके श्राप स्वयंसवक है।' और इस लिये श्राप जो : यदि दोनोंदीदी : कहते हैं उम पर खुद अमल भी करते हैं। इससे आप : दुख पा नहीं सकता दोनों ही मृत्यु के भयम के इस लेखका महत्व और भी बढ़ जाता है । इसमें । पीड़ित बन नहीं सकता। : साधारण जनताके विश्वासके विरुद्ध जिस सत्यका : रहित हैं, तो पीड़ा कोई यदि सभी मनुष्य वीर : उद्घाटन किया गया है उसे ठीक ठीक समझ कर यदि : पा नहीं सकता। एक हो, कोई कायर न हो, हम अपनी प्रवृत्तिको बदल दें, अन्यान्य-अत्याचारके : की जीत होगी, और तो पीड़ा का जन्म ही: सामने सिर न झकाएँ और अपनी कायरता तथा : एकको मत्य । हारेगा वासनामों पर विजय प्राप्त करके पीरकोंकी उत्पत्तिका नहो । फिर भला पी: मागे ही बन्द कर देखें तो हम सहज हीमें पीडित होने: कोई भी नहीं। जिस एक ही कहाँ से पाएं। पाप एवं दुःखसे छूट सकते हैं। -सम्पादक। की जीत हुई उसे तो जब वासनामोंसे निर्व- १.... .....n.i... भला पीड़ा ही क्या
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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