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________________ महात्माजी और जैनत्व वैशाख, ज्ये, वीरनि०सं० २४५६] 1 मिथ्याची सब देवोंकी आँख मींचकर पूजा करता है। बहरागोंका पुजारी नहीं नामका पूजारी रहता है । उसके कार्य विवेक शून्य होते हैं। वह भली-बुरी सत्यश्रसत्यमें कुछ अन्तर नहीं समझता । जब कि, अनेका वाला मनुष्य नामका नहीं गुरणका पुजारी होता है. उसे हेयोपादेय का विवेक रहता है। वह सब जगह सत्य प्रहण करता है और असत्य का त्याग करता है। वह नाम के झगड़ों में ही नहीं पड़ता । महात्माजीने नामकी पर्वाह न करके सत्यकी पर्वाह का है। कोई मनुष्य किसी भी मतका अपनेको माने, परन्तु वह अगर आत्मा में विश्वास रखता है, सत्यका वांजी है, सदाचार को धर्म समझता है और यथाकि उसका पालन करता है तो वह महात्माजी की धर्मात्मा है और हमारी दृष्टिसे भी वह धर्मात्मा और जेनी है । मिस स्लेट महात्माजी की शिष्या हैं। अब उन का नाम मीराबाई है। उनके विषय में योरोपीय समाचारपत्रों में जब यह चर्चा निकली कि वे हिन्दु होगई है नव महात्माजी ने यह कहकर उसका विरोध किया aff 'वे व पहिले अधिक मची ईसाई हैं;' महा-नाज के मतानुसार धर्मात्मा बनने के लिये हिन्दू धर्म छोड़ कर ईसाई, मुसलमान प्रादि बनने की जरूरत नहीं है, न ईसाई-मुसलमान धर्म छोड़कर हिन्दु बनन * आवश्यकता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य. अमिता आदि यदि वास्तविक धर्म हैं और इनका पान किसी भी सदयमें रहकर या किसी भी पुस्न का सहारा लेकर यदि किया जा सकता है तो फिर श्रम कल्याणकी दृष्टि सम्प्रदाय-परिवर्तनकी क्या जरूरत है ? यही कारण है कि महात्माजी ने कहा था कि, मीराबाई अब पहिले से अधिक सभी ईसाई है । ३७७ मेरा तो ऐसा स्ख़याल है कि भगवान महावीरके जमाने में जैनधर्मके अनेकान्तका भी ऐसा ही रूप था। यही एक ऐसी विशेषता थी जो दूसरे दर्शनों में नहीं पाई जाती थी । यही कारण है कि जैनधर्म में मोक्ष जानें अथवा मोक्षमार्गी होने के लिये किसी खास लिंगका आवश्यकता नहीं बतलाई गई है— उसके लिये किसी लिंग या वेष विशेषका श्रम अनिवार्य नहीं है । यह बात तो सम्भव ही नहीं है कि कोई प्रचलित जैन सम्प्रदायको धारण करनेवाला मनुष्य जैनलिंगका छोड़कर अन्य लिंग धारण करें । इस लिये अगर कोई प्रचलित जैन सम्प्रदायको नहीं मानता या नहीं जानता (परन्तु उसका वह विरोधी या द्वेपी नहीं है) और जैन धर्म के अनुसार वह मोक्ष जा सकता है तो कहना चाहिये कि जैनधर्म सच्चा आत्मधर्म है, सत्य धर्म है, उदार धर्म है। उसे किसी सम्प्रदाय में कैद करना सूर्यका घड़े में बन्द करना है । इसलिये वास्तविक जैनधर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है। वैष्णव, शैव आदि सम्प्रदायकि समान जिम प्रकार हिंसा-सम्प्रदाय सत्य-सम्प्रदाय अचार्य-सम्प्रदाय, ब्रह्मचर्य-सम्प्रदाय, अपरिग्रह-सम्प्रदाय आदि सम्प्रदाय नही बन सकते । अन्यधर्म नामका ही सम्प्रदाय बन सकता है, उसी प्रकार जैनत्व भी कोई सम्प्रदाय नहीं है। वह तो अनेक सम्प्रदायों का समन्वय रूप एक महलम सम्प्रदाय या धर्म है | भगवान महावार के जीवन की बहुत-सी छोटी-छोटी घटनाएँ आज हमारे सामने नहीं है। उनके सिद्धान्त हमारे सामने है । मममने वाला व्यक्ति इसमे मम सकता है कि वास्तविक जैनत्व उदारता और अनेकान्त के बिना नहीं रहना है। जहाँ इन गुगोका विकाम है यहीं जैनत्व है। महात्माजी में हम इन गुणांका प विकास देखने है इसलिये वहां पर जैन नामका पूर्ण प्रवेश न होने पर भी जैनत्व के अर्थका पूर्ण प्रवेश ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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