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________________ ३७६ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६,७ महात्माजी और जैनत्व। - [लेखक-श्री० पं० दरबारीलालजी, न्यायतीर्थ] जनवकी यदि वास्तविक व्याख्या की जाय, अथवा फान्त की दिव्य इमारत तैयार करता है। यही सच्चा ___दायिक एकान्तको दूर करके शास्त्र के अनु- अनेकान्त है और यहीजैनधर्मकी विशेषता है। अस्तित्व भारही जैनन्वका विचार किया जाय, नो महात्मा गांधी नास्तित्व, व्यापकत्व, अव्यापकत्व, परत्व, अपरत्व जीमें जैनन्वका हम जितना विकाम देख सकेंगे वह आदि की नीग्स चर्चा ही अगर अनेकान्त होता तो वह गायन । आज किमी परूपमें दिखाई दे सके।जैनधर्मकी जैनधर्मकी विशेषता न बन पाती;क्योंकि ऐसे अनेकान्न अनेक विशेपनाओमे मे हम अनेकांत और हिमा को ती प्राय सभी दार्शनिकों ने अपनाया है। भले ही कोहा मुख्य स्थान दसकते है। और ये दो बातें महात्मा उनने विविध नामोंका जाल न बिछाया हो परन्तु ऐमें जी ने जिस प्रकार अपने जीवन में उतारी हैं, उतनी अनेकान्तको नो प्रत्येक आदमी और प्रत्येक दार्शनि के शायद ही कोई उतार मका हो। मानता है । फिर भी अनेकान्तवादी इने गिने ही हैं । आजकल अनेकान्त का हम जैमा अर्थ करते हैं जैनधर्मने जिम 'अनेकान्त'को इतना महत्व दिया है वह उसके अनुसार तो हम म्यद एकान्तवादी होगये हैं। इतनी मामूली वस्तु नहीं है । अनेकान्तका मुख्य उद्देश था सम्प्रदायिकताका विनाश अनेकान्त तत्त्व वास्तवमें बड़ा दुर्लभ है । क्योंकि अर्थात् वह उदार दृष्टि, जिस से हम प्रत्येक सम्प्रदाय मनुष्योमें सहिष्णुता और उदारता बड़ी मुशकिल में की अच्छी बात को पहण कर सकें और बरी बातको पाती है। परन्तु जिस में वह उदारता आ जाती है उपेक्षा की दृष्टि से देव मके। कोई भी मम्प्रदाय जब वह मनष्य नहीं देव बन जाता है। उसका किसीसम्प्र. पैदा होता है तब उस द्रव्य-क्षेत्र काल-भावके लिए वह दाय में रागद्वेष नहीं रहता, वह तो सस्य का पुजारी अवश्य हिनकर होता है । उममें को. न कोई विशेषता हो जाता है। रहती है। अगर मनुष्य चाहे तो उसका ठीक उपयोग हम लोग अनेकान्तके नामकी पूजा करते हैं परन्तु करके अपने जीवनकों बहुत कुछ पवित्र बना सकता है। अनेकान्तके वास्तविक रूप का दर्शन नहीं कर पाते; दूसरे सम्प्रदाय से पणा करनेवाले न तो सत्यकी या फिर व्यवहारमें लाना तो दूर की बात है। यही कारण सम्यग्दर्शनकी रक्षा कर सकते हैं और न चारित्र की; है कि जैनकुल में पैदा होने पर भी हममें से अधिकांश क्योकि साम्प्रदायिक द्वेषभावसे उनको कषायें इतनी लोगों को जैनत्व दुर्लभ हो रहा है । परन्तु महात्माजी तीन हो जाती हैं कि चारित्र रह ही नहीं मकता; मे हम अनकान्त की और जैनत्व की झांकी देखते हैं । चारित्र नाम ही है कपाय-रहितता का। वे किसी सम्प्रदायके पुजारी नहीं किन्तु सत्यके पजारी जैनधर्म, विविध सम्प्रदायों को प्रर्थान् एकान्तों हैं, यही तो जैनत्व है । को लड़ाता नहीं है किन्तु सम्प्रदायों का समनवय करता स्मरण रखना चाहिये कि यह ममदर्शीपन वैनहै । वह प्रत्येक एकान्त का सार ग्रहण करके अने- यिक मिथ्यात्व नहीं है । एकान्तदृष्टि और वैनयिक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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