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________________ . नवम-षोडशजिन स्तवनम् ५२६ अनेकान्त [वर्ष १,किरण ८, ९, १० ___ दशम-पञ्चदश जिनस्तवनम् श्री रङ्गजा ते सविधे मदा शां, श्री शीतल त्वां जितमोहयो ध, धांशुगौरी ... विशदीकरो ति। शी लाढय याचे जिनराजश में। वि श्वैकवन्द्यो सिमगाङ्क ना ना, तव स्वरूपं हृदि संदधा ना, धि नोषिकोकानपिशान्तिनाथ ह ल यं लभन्ते त्वयि धर्मना था१० व्याख्या हे श्रीशीतल ! दशमजिव्याख्या हे मुविध ! नघमजिनेन्द्र ! नपतं ! जितमोहयोध ! निर्जितमाहमल्ल ! शीते तवाङ्गजा शरीरसंभवा श्रीः कान्तिः सदाशा लाढ्य ! शीलधनेश्वर ! अह त्वां भवन्तं जिनसाधकामना अविशदामपि विशदां करोति वि राजशर्म नीथकरसौख्यं याचे मार्गयामि । अथाशदीकरोति निर्मली करोनीत्यर्थः । किंविशिष्टा परार्धव्याख्या-हे धर्मनाथ ! पञ्चदशजिनेन्द्र ! श्रीः १ सुधांशुगौरी चन्द्रघवना । अथोत्तगध जीवास्तव स्वरूपं भवतो वीतरागत्वं हृदि हृदये व्याख्या--हे शान्तिनाथ ! पोडशजिनेन्द्र ! संदधाना ध्यायन्तः त्वयि भवति यं लभन्ने मगाइ समगलाञ्छन ! त्वं विश्वैकवन्योऽसि वि __ स्थान प्रामुवन्ति इत्यर्थः ॥१०॥ श्वननैकवन्दनीयोऽसि । न केवलं विश्वकवन्यः अथे-ह मोहमालको जीतने वाले शीलधनं(किं पुनः ? ) नाना अनेक प्रकागन कोकान श्वर श्रीशीतल ! मैं आपस जिनगज सुखकी याविचक्षणानपि धिनोषि प्रीणामि । अन्यो यो चना करता हूँ। और हे धर्मनाथ ! आपके स्वरूपमगाडः स विश्वैकवन्धः, परं कोकान् चक्रवा- को-वीतगगताको-हृदयमें धारण करने वाले जीव कान न धिनोति । परं भगवान मगाङ्कोऽपि आपमें लयका प्राप्त होते हैं। विश्वकवन्यः कोकगीतिकारकश्चापीत्यर्थः ।।६।। एक दश-चतु:सजिना तवनम - __ अर्थ - हे श्रीमविधि तीर्थकर ! आपके शरीर श्रावत्मिनि श्रीहदि तावके श्रीकी चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कान्ति सदाशाको- श्र यांस सक्ता नितरामहो | श्र। माधु कामनाका-विशद करती है। हे मगलांटन यां मे निजां देहि वदान्य दी नं, शान्तिनाथ! आप विश्वकवन्दा हैं और अनेक प्रकार समीच्य वीराग्रिम मामनं | त११ के कोकों (विचक्षणों) को भी संतुष्ट करते हैं। भावार्थदूसरा जो मृगलाँछन-चंद्रमा-है वह विश्वकवन्य व्याख्या--अहो इति संबोधने । श्रीजरूर है परन्तु कांकों (चकवों) को सन्तुष्ट नहीं करता श्रेयांस ! एकादशजिनपते ! अविष्णुः, अाइव है परंतु आप मृगलांछन होते हुए भी विश्वकवंद्य और अः, लुप्तोपमत्वाद्विष्ण पमः, तस्य सम्बोधनं अहो कोकप्रीतिकारक दोनों गुणोंको लिये हुए हैं। अ! अहो श्रेयांसविष्णो! ओदन्तनिपातत्वा
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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