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________________ मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६) अभिनन्दन और प्रोत्साहन ६ वाणीभूषण पं० तुलसीरामजी, काव्यतीर्थ, पूर्ण प्राशा है कि पूज्य आचार्यके परोक्ष प्राशीबड़ौत र्वाद तथा श्राप जैसे 'युगवीर' के अमूल्य परि श्रमसे आश्रमको अनुपम सफलता प्राप्त होगी । "आश्रम-स्थापनसे पहले ही आपके प्रति मेरा आश्रमको सफलता मिलना समाजका नवजीवन श्रद्धाभाव है। इस आश्रमकी स्थापनासे उसमें मिलना है । वास्तवमें ऐसे ठोस कार्यकी श्रावऔर वृद्धि हुई है । वास्तवमें यदि कभी जैनसमा- श्यक्ता थी । भविष्यकालीन प्रजा आपके इस जके जैनसाहित्य-संशोधन, तत्परिमार्जन, तदुन्न- विवेकपूर्ण परिश्रमके आगे अवश्य ही सिर यन, तदभिवर्धनका कोई इतिहास लिखा जायगा। झुकावेगी।" तो वर्तमानके ऐसे कृत्प्रयत्नों में आपका नाम सर्व ६५० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, धर्माध्यापक प्रथम सुवर्णाक्षरोंमें अंकित किया जायगा। वास्तव स्याद्वादविद्यालय, काशी--- में आपने अपने अनवरत परिश्रम एवं मनन अध्य- " आपने जिम महत्कार्यके करने का बीड़ा वसायद्वारा जिस उच्च कोटिक स्थायी एवं श्रादर्श उठाया है वह सर्वथा सराहनीय एवं प्रशंसनीय माहित्यका निर्माण किया है वह चिरस्मरणीय । है । जैनमाहित्य एवं सिद्धान्तके रहस्यपूर्ण तथ्यों रहंगा । इसमें उपर्युक्तको श्राप निरा अर्थवाद न का उद्भावन इस समय बहुत आवश्यक है । समझ, यह ता वज्रसत्य वस्तुस्थिति है । मुझ मैं मनसा वाचा कर्मणासे आपके इस अभिनन्द्रआपके इस महान उद्देश्यके प्रति हार्दिक सहान- नीय प्रयाम का स्वागत करता हूँ-और श्रीमजिनेंद भूनि है।" दवमं प्रार्थना करता हूँ कि आश्रम दिनोंदिन ७ ५० लोकनाथनी शास्त्री, मृडविदी - उन्नतिशील होकर संसारके सन्मग्य जैनधर्म की "समन्भद्राश्रमकी स्थापना और 'अनेकान्त' पत्र कीर्ति को दिगन्तव्यापिनी बनाये । आपने जो मुझे मवाकार्य करने के लिये आमंत्रित किया है की योजना वगैरह कार्योको सुन कर मनमें अतीव उत्साह तथा आनन्द प्राप्त हो जाता है । ... धर्म इम मैं अपना सौभाग्य ममझता हूँ।" तथा समाजका उत्थान तथा पनरुद्धार करन ० ५०कमलकुमारजी शास्त्री,गना(ग्वालियर)लिये ऐसे ठोस काम अत्यधिक जरूरी है। जैन- "आपने मपरिश्रम अनकानेक बाधाओंक प्रात हुए ममाजमें काफी विद्वान तथा श्रीमान लोग भी हैं, भी ममन्तभद्राश्रम स्थापित करके जैनजनतामें किन्तु मच्चे हृदयस धर्मोन्ननि-सेवा करने योग्य । बड़ी भारी त्रुटिकी पूर्ति करकं वात्सल्यताका परम व्यक्तियोंका अभाव है । अतएव आपकं धर्म तथा पवित्र परिचय दिया है।" समाजाद्धारके कामसे पूर्ण संतुष्ट हा कर सहा- ११५० धन्यकुमारजी 'सिंह'. कलकत्ता---- नुभूतिके साथ श्रीजिनेन्द्र भगवानसे प्रार्थना करता हूँ कि आप युगवीरके मनवांच्छित-काम निर्विघ्नता । "आश्रमकं ग्येिस समाजमें ममाजमवक और से सफल माध्य हो जावें, तथा आप कीर्तिमान यथार्थ धर्मरक्षक वीर पैदा होंगे यही आशा मुझे बनें । ऐसे कामोंसे मैं पूर्ण सहमत हूँ।" बार बार पुलकित कर रही है । श्रापको अन्तः करणसे अनन्त धन्यवाद है । आप जी, ८ पं०शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, न्यायतीर्थ, बीकानेर आपका आश्रम चिरंजीव हो, 'अनेकान्त' चिरं"मंगलमय समन्तभद्राश्रमकी स्थापनाके समाचार जीव हो जयवन्त हो। आश्रम और अनकान्तकी पत्रोंमें पढ़ कर अत्यन्त आनंद हुआ है। मुझे कुछ भी सेवा कर मका तो मैं अपनको धन्य
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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