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पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] एक विलक्षण प्रारोप
६६३ संख्यासे ही भिक्षाका अधिक लाभ होना संभव है।" क्या क्रोधके आधार पर ही आप अपना सब काम
पाठकगण देखिये, कितने तिरस्कारपूर्ण उद्गार हैं निकालना चाहते हैं ? और प्रेम, सौजन्य तथा युक्तिऔर कैसी विचित्र कल्पना है !! क्या दुर्भिक्षमें श्वेता- वाद आदिसे कुछ काम लेना नहीं चाहते? बहुत संभव म्बरोंके पर्व परुषोंका जैनियोंके यहाँसे पेटपालन (!) है कि आपका यह आगे नहीं हो सका और उन्होंने अजैनियोंके यहाँ से भिक्षा गेपका महज़ जवाब हो जो कामताप्रसादजीकी लेखनी लेने के लिये ही वस्त्र धारण किये ? और क्या खियों पर लगाया गया था, परन्तु कुछ भी हो ऊपरके कथन तथा शूद्रोंसे भोजन प्राप्त करने के लिये ही उन्हें मुक्ति तथा विवेचन परमे यह स्पष्ट है कि इसमें कुछ भी सार का संदेश सुनाया गया-उसका अधिकार दियागया? नहीं है और यह जान-अनजाने बाबु छोटेलालजी के कितनी विलक्षण बुद्धिकी कल्पना है !! इस अद्भुत शब्दों तथा नोटके शब्दोंको ठीक ध्यानमें न लेन हुए कल्पनाको करते हए बैरिधर साख्अपने दिगम्बरशाखों ही घटित किया गया है। श्राशा है बैरिष्टर साहब अब की मर्यादाका भी उल्लंघन कर गये हैं और जो जी में 'मूलकी मर्यादा' आदिके भावको ठीक समझ सकेंगे। आया लिख मारा है। रत्ननन्दि आचार्यके 'भद्रबाहु यहाँ पर मैं अपने पाठकोंको इतना और भी बतला चरित्र' में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि दुर्भिक्ष के देना चाहता हूँ कि इधर तो बाब छोटेलालजी हैं जिसमय ऐसा हुआ अथवा उस अवशिष्ट मुनि संघको नहोंने अपने लेख परके नोटोंके महत्वको समझा है जैनियोंके घरसे भोजन नहीं मिला और उसने अजैनों और इस लिये उन्होने उनका कोई प्रतिवाद नहीं किया के यहाँ से भोजन प्राप करने के लिये ही वस्त्र धारण और न उनके विषयमें किसी प्रकारको अप्रसनताका किये । बल्कि कुबेरमित्र, जिनदास, माधवदत्त और ही भाव प्रकट किया है। वे बराबर गंभीर तथा उदार बन्धुदत्त श्रादि जिन जिन अतुल विभवधारी बड़े बड़े बने हुए हैं और 'अनेकान्त' पत्रको बड़ी ऊँची दृष्टिम सेठोंका उल्लेख किया है उन सबको बड़े श्रद्धासम्पन्न दखते हैं और यह बात हाल के उनके उस पत्रसे प्रकटहै श्रावक लिखा है जिन्होंने मुनिसंघकी परे तौरसे संवा जिसका एक अंश यदि यगंपमें ऐसा पत्रप्रकाशितहाता' की है, दीन दुखियोंको बहुत कुछ दान दिया है और इस शीर्षकके नीचे ५०६५१पर दियागयाइऔर जिसमें जिनकी प्रार्थना पर ही वह मुनिसंघ दक्षिणको जानसे उन्होंने पत्रकी भारी उपयोगिताका उल्लेख करतहुए उसके रुका था।अतःलेखकी ऐसी बेहूदी और निरर्गल स्थिति चिरजीवन के लिये प्रोपेगैंडा करनेका परामर्श दिया है होते हुए उसे 'अनकान्त में स्थान देना कैंस उचित हो और साथ ही अपनी सहायताका भी वचन दिया है। सकता था ? यदि किसी तरह स्थान दिया भी जाता और उधर बैरिष्टर साहब हैं जो अपनी तथा अपने तो उसके कलेवरसे फटनाटोंका कलेवर कई गना बढ़ मित्रकी शान एव मानरक्षाक लिय व्यर्थ लिखना भी जाता और तब बैरिष्टर साहबको वह औरभी नागवार उचित समझते हैं और जरासी बात के ऊपर इतत रुष्ट मालूम होता और उस वक्त आपके क्रोधका पागन हो गये हैं कि उन्होंने 'अनेकान्त' के गणोंकी तरफम मालूम कितनी डिगरी ऊपर चढ़ जाता; जब एक मित्र अपनी दृष्टिको बिलकुल ही बन्द कर लिया है, उन्हें के लेख पर नोट देनेसे ही उसकी यह दशा हुई है ! अब यह नजर ही नहीं आता कि 'अनेकान्त' काई उसे न छाप कर तो उस नीतिका भी मनसरण किया महत्वका काम कर रहा है अथवा उसके द्वारा कोई गया है जिसे आपने विलायतके पत्रसंपादकोंकी नीति काबिल तारीफ काम हुआ है , अनेकान्तकी नीति भी लिखा है और कहा है कि वे ऐसे लेखोंको लेते ही उन्हें उम्दा (उत्तम) दिखलाई नहीं देती , अनेकान्तके नहीं जिन पर फुटनोट लगाये बगैर उनका काम न नामको सार्थक बनानेका कोई प्रयत्न उसके सम्पादक चले।' फिर इस पर कोप क्यों ? राजबकी धमकी ने अभी तक किया है यहभी उन्हें दीख नहीं पड़ताक्यों ? और ऐसे विलक्षण आरोपकी सृष्टि क्यों ? सुन नहीं पड़ता, सहधर्मी वात्सल्यकी पत्रमें उन्हें कहीं