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________________ भाषाढ, श्रावण,भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] कालकाचार्य वहाँ रहते हैं , परन्तु उनके शिष्य प्रमादी हो गये । देखा तो गुरुजी दिखाई नहीं दिये। वे लोग बहुत ही गर्की अत्यधिक प्रेरणा होने पर भी वे लोग क्रियानु- लजित हुए । बादमें शय्यातर (घरके मालिक ) द्वारा शान बराबर नहीं करते थे । उस समय आचार्यश्रीने मालूम हुआ कि-ऐसे प्रमादी शिष्योम उकता कर सा विचार किया कि-ऐसे प्रमादी शिष्योंके साथ गुमश्री सागरचंद्राचार्य के पास 'सुवर्णपर' गये हैं। रहने की अपेक्षा अकेला रहना अच्छा है। ऐसा विचार साधुओंने सुवणपुरकी तरफ प्रयाण किया। साधुकरके शय्यातर (घरके मालिक) को सब बातें ममझा- ममुदायकी संख्या अधिक होने के कारण उन्होंने तीन वझाकर शिष्यों को सोते छोड़ कर प्राचार्यश्रीने टालियाँ कर दी । ये टोलियों एकके पीछ एक-इस म्वरगपुर की ओर प्रस्थान किया । वहाँ पर कालका- क्रममे जाती थीं। मार्गमें लांग पछत हैं कि-कालचायक प्रशिष्य सागरचन्द्राचार्य रहन थे। कालका- काचार्यजी कौन हैं ?' तब उत्तरमें पीछेकी टोली कहती चार्य उनके (सागरचंद्राचार्य के ) उपाश्रयमें गये, और है-'आगे गये।' और भागेकी टोली कहती है-पीछे अपना परिचय नहीं कराते हुए स्थान माँग कर एक हैं।' यह मंडली सुवर्णपरके समीप आई, तो सागरचंकानमे ठहर गये। द्राचार्यनं समझा कि-गम्देव भान हैं। एमा जानप्रातःकाल सागरचंद्राचार्यन मभासमक्ष मधर कर मामने गये, और पछा कि-'गुरुदेव कौन है ?' 'वनिमें व्याख्यान दिया , और उस वद्ध माध ( का- उत्तर मिला कि-'व ना पहले ही तुम्हारे पास श्रा नकाचार्य) से पछा कि-"ह वृद्ध मुने ! कहिय मैंने गये है। कमा व्याख्यान दिया?" कालकाचार्यने कहा-“बहन मागरचंद्र विचार में पड़ गयं । जिनके साथ मैंने अच्छा व्याख्यान दिया।" फिर मागाचंद्रन अहंकार- शास्त्रार्थ किया और जिन्होंने मुझको हराया, वही तो पवक कहा कि- "हे वृद्ध माधों ! तुमको कुछ मिद्धा- कही में गुरुदेव श्री कालकाचार्य महाराज नही होंगे? नादिका संदेह हो तो पूछिये ।” मबके साथ मागरचंद्राचार्य ने उपाश्रयमें पाकर __कालकाचार्यन, मागरचंद्रको उनके अभिमानका गुरुको वन्दना की और अपने अपराधकी माफी भान कराने के लिय, विवाद प्रारंभ किया और कहा मांगी। कि-'आचार्य जी, धर्मका अस्तित्व है या नही" कहा जाता है कि-इम ममय मौवर्मेन्द्र ने सीममागरचंद्रनं उत्तर दिया-धर्म अवश्य है।' कालका- धर स्वामीके निकट जाकर निगांद विचार सुना। वार्यने उमका निषेध किया। और पन्छा-'हे स्वामिन ! भरतक्षेत्रमें इस प्रकारका दोनोंमें खूब वाद-विवाद हुआ । अंतमं मागरचंद्र निगादका म्वरूप कोई जानना है?' मीमंधर स्वामीन निरुत्तर हो गए। फिर उन्होंने विचाग कि यह कार्ड उत्तर दिया- 'प्रतिष्ठानपुरमें कालकाचार्य हैं वे इस मामान्य वृद्ध साध नहीं है, बल्कि एक प्रतापी वया- विषयक जानकार है।' इन्द्र ब्राह्मणका रूप धर कर वृद्ध, ज्ञानवृद्ध और अतिशयशाली महात्मा मालम प्रतिमानपुर में आया , और कालकाचार्यम निगोदहोते हैं। १ यहां पर कालकाचार्यका एलान्त स्वर्णपुरमें बन रहा है। इधर उन प्रमादी शिष्यांन प्रातःकालमें उठ कर इसी समय इन्द्र प्रतिष्ठानपुर में माना है और कालकाचार्य भेट
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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