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________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० राजाओंको मालवा देशके विभाग करके बाँट दियेका 'कालकाचार्य' विचरते विचरते प्रतिष्ठानपुर में ___ आचार्यने 'सरस्वती' साध्वीको गच्छमें-समुदाय पधारे, जो कि दक्षिण देशमें था । वहाँका गजा में लिया । पराधीन अवस्थामें लगे हुए दोषोंके प्रा. शातवाहन' श्रावक था और साधुभक्त था। उसने यश्चित्तरूप उसने तपस्या की । आलोचना भी ली, भक्तिपूर्वक आचार्यश्री का चातुर्मास कराया । पर्यऔर कालकाचार्य स्वयं भी कईएक आलोचनाएँ कर- षण पर्व निकट आते ही गजाने प्राचार्य से पूछाके निरतिचार चारित्रका पालन करनेके साथ साथ 'पर्यषण पर्व किस दिन होगा ?' आचार्यश्री ने उत्तर गच्छका भार भी वहन करने लगे । अर्थात् अपने समु• दिया-भाद्रपद शुक्ला पंचमीको ।' राजा ने कहादायका संरक्षण करने लगे। 'महागज, उसी दिन हमारे यहाँ कुलक्रमागत इन्द्रम२ सांवत्सरिक पर्वकी तिथिका बदलना होत्मव पाना है । उममें मुझे अवश्य जाना चाहिये, सांवत्सरिक पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमीके बाले और एक ही दिन में दोनों उत्मवोंमें भाग लेना अशचतुर्थी के दिन प्रारंभ करने वाले कालकाचार्य के क्य - क्य है। इस लिये पर्युपणपर्व पंचमीके बदले छठमम्बन्ध में खास जीवनपरिचय नहीं प्राप्त होता है । का रखिये ताकि मैं पूजा, नात्र पौपधादि क्रियाएँ सिर्फ एक हस्तलिखित प्रतिमें ऊपर केवत्तान्तस चतुर्थी कर सकूँ।' का वृत्तान्त भिन्न किया गया है । पंचमीकी चतुर्थी गुरुने उत्तर दिया कि-'पंचमी की गत्रिका उल्लंकरनेका प्रसंग इस प्रकारका है घन कदापि नहीं हो मकता है।' यह सुन कर गजाने चतुर्थीक दिन रखनके लिये प्रार्थना की। राजा के * कालकाचार्थने शक राजामोंको जीनी प्रान्त दिये थे, उनमें आग्रहम और 'कल्पमत्र' के 'अतरावियसे .....' सौगष्ट्र का भी मनावश हो जाता है। गांकि - विमेंट ए. स्मिथ 'मलि हिस्ट्री भाफ इन्डिया' के पृ. १३७ में के नोट में लिखते इस पाटका आधार लंकर कालकाचार्यन पर्यपण पर्व पंचमीके बदल चतुर्थीके दिन किया । उसी प्रकार "मीरा-में जो शक गोग थे. उनका दमा चन्द्रगुप्त विक गादित्य चौमासी पूर्णिमाके बदले चतुर्दशी की । उस दिनसे ने ई.स. ३६० में हराया था।" समस्त (श्वेताम्बर) संघ में यह प्रथा प्रचलित हो गई। इमी नोटमें 'शक' लोगेांका "क्षत्रप" प्रयवा मत्रपके ३ इन्द्रको निगोदका स्वरूप समझाना नामसे परिचय कराया है। संस्कृन कथानकमें इस सम्बन्धको अगले मम्बन्धके साथ निन्ना उपर्युक्त वृत्तान्त के साथ ही इन्द्रको निगादका स्वदिया है। अर्थात उपयुक्त कालकाचा का ही बलभित्र मोर भान रूप समझाने वाले कालकाचार्यकी कथा भी मिला दी मित्रके निमंत्रणाम भरोच जाना, पुरोहितका विगध करना भादि गई है । वह कथा इस प्रकार है:दिखलाया गया है । इस वर्णनको पूरा करने के बाद एक प्राचार्यका कालकाचार्य सुख-शान्तिपूर्वक चारित्र पालते हुए सम्बन्ध समाप्त कर दिया गया है । उसके बाद पंचसीकी चौथ करने . बाखे कालकाचार्यका वर्णन प्रारम्भने हाता है, प्राकृत कथानक बल- १ संस्कृत क्यामें प्रतिष्ठानपुर के गजाका नाम सातवा. मित्र और भानुमित्रके यहां जाने वाले कालकाचार्य ही पंचमी की हम दिया है, और प्राकृत कथानक में सासपाहल लिखा है। बोध करने वाले हैं, ऐसा सम्बन्ध मिलाया है। सम्भव है कि लिखने में प्रशुद्धि हुई हो।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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