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का स्वरूप पूछा । गुरुने बहुत ही सूक्ष्म रीतिसे निगोद का स्वरूप समझाया, जिसको श्रवण करनेमे ब्राह्मण
अनेकान्त
अत्यन्त आनन्द हुआ । फिर उसने अपना हाथ लंबा करके आचार्यजी से पूछा कि - "महाराज ! दे खिये, मेरा आयुष्य कितना है ? यदि थोड़ा हो, तो मैं कुछ साधना कर लूँ ।”
गुरूने हाथ देखा तो मालूम हुआ कि, इसका आयुष्य तो सागरोपमका है । कालकाचार्य समझ गये कि यह तो इंद्र है । इसलिये आयुष्य न बतलाते हुए कहा- 'हे इन्द्र, धर्मलाभोऽस्तु' । इसके बाद इंद्रन प्रकट होकर दसों दिशाओं में उद्यांत किया । वंदन करके स्तुति की, और सीमंधर स्वामीके पास जानेका मारा वृत्तान्त कह सुनाया ।
इन्द्र जाने लगा । तब गोचरी (मिक्षा) को गये हुए साधु वापिस आवें, उस वक्त तक ठहरनेके लिये कालकाचार्य ने कहा | परन्तु इन्द्र न ठहरता हुआ अंतधन हो गया और उपाश्रयका मूल दरवाजा जिस दिशामें था उस दिशा मेंसे फिरा कर उसे अन्य दिशा में करता गया । भिक्षासे आने पर साधुश्रीको यकायक यह परिवर्तन देखकर आश्चर्य हुआ। फिर गुरुक पूछने से इन्द्र के नेका सारा वृत्तान्त ज्ञान हुआ ।
इसके बाद कालकाचार्य दीर्घ काल पर्यंत निर्मल चारित्रको पाल कर अंत में अनशन करके समाधिपूर्वक देवलोक में पधारे।
[वर्ष १, किरण ८, ९, १०
है कि, कालकाचार्य एक ऐतिहासिक पुरुष अवश्य थे । अनेक विद्याओं के पारगामी थे, शासन प्रभावक श्र बाणकला में दक्ष थे । परंतु प्रश्न यहाँ पर यही उपस्थित होता है कि, उपर्युक्त तीनों घटनाएँ X भिन्न भिन्न समयमें होने वाले कालकाचार्यों के द्वारा हुई, या एक ही कालकाचार्यन यह सब किया ? अथवा किसी एक कालकाचार्यन इन तीन घटनाओ से कोर्ट सी दो की हैं ?
करता है। सीमधर स्वामीने भी प्रतिठामपुरका कहा था। सम्भव है कि स्वर्णपुरसे विहार करके कालकाचार्य के प्रतिानपुर में पधारनेके बादकी यह घटना हो ।
एक बात अवश्य कही जा सकती है कि, गर्दभिदका उच्छेद करके शक राजाओ के स्थापक कालकाचार्य वीरनिर्वाण के बाद पाँचवीं शताब्दिमें हुए होने चा हियें। क्योकि पाश्चात्य इतिहासकारोंकी शोध के अन सार शकलोग भारतवर्ष में ई० सनकी पहली शताब्दिमें आये थे, और वीरनिर्वाणके बादका क्रम देवत हुए वीर निर्वाणके बाद ६० वर्ष तक पालक राजा का राज्य रहा। इसके बाद १५५ वर्ष तक नवनन्दोका राज्य चला । पश्चात् १०८ वर्ष तक मौर्य साम्राज्य रहा। फिर
× प्रत्येक कथानकमें कालकाचार्य के माता, पिता, दीक्षा भादि का उत्तान्त तो लगभग समान है । परन्तु एक संस्कृत (२) कथानक में बनाया गया है कि
तिसयपणवीस इंदा,
चरसग्रतिपन्न सरम्स ईगहिश्रा ।
नवसय तिनवइ वीरा
उपसंहार
चथिए, जो कालगायरिया ||
अर्थात् महावीर निर्वाण से ३२५ वर्षमें इन्द्र प्रतिबोध करने
कालकाचार्य की कथा परसे यह तो निश्चय होता बाले, ४५३ में सरस्वती साध्वी के लिये लड़ने वाले मौर ६६३ में मक्सी पर्व पचमीके बदले चतुर्थीको करने वाले कालकाचार्य हुए।
[* यह पद्य कौनसे ग्रन्थसे उदधृत किया गया है, यह भी बत लादिया जाता तो अच्छा होता । - सम्पादक ]