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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं० २४५६ ] कालकाचार्य
३० वर्ष तक पुष्यमित्र का,
६० बलमित्र भानु मित्रका,
नभोवाहन का
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गर्दभल का, और
शक राजाओंका राज्य चला ।
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इस तरह वीर निर्वाणके ४७० वर्ष व्यतीत होने के बाद 'शक' के पश्चात् 'विक्रमादित्य' राजा हुआ । इस हिसाब से वीर निर्वाण के बाद ४५३ वर्ष में गर्दभिल्ल गद्दीपर आता है । इसके गद्दीपर श्रनेके बाद ही कुछ समय के भीतर सरस्वती साध्वी के उठाए जानेकी और कालकाचार्य द्वारा 'शक' लोगोंके आनंकी घटना होनी चाहिये, और इससे सरस्वती माध्वीके हरएका ममय ४५३ अथवा उसके आस पासका मानना ही उचित मालूम होता है । गर्दभिल्लने १३ वर्ष राज्य किया अधीन कालकाचार्य ने ४६६ में शक लोगोंका राज्य स्थापित कराया और ४७० में विक्रमादित्य हुआ । इस कथन से यह मालूम होता है कि, 'शक' लोगोका राज्य उज्जैन में मात्र ४ वर्ष तक ही रहा । 'शक' लोगों के राज्यसम्बन्ध में पहले दिए हुए एक नोटमे जैसा कि कहा गया है- 'शक लोगांने उज्जैन में थोड़े ही समय नक राज्य किया' । इस बात के लिये यह प्रमाण एक विशेष सबतके तौर पर है ।
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अब संवत्सरी पर्व पंचमके बदले चतुर्थीका प्रारंभ करने वाले कालकाचार्य वीर मं० ५५३ में प्रथांत १००० वीं शताब्दिमें हुए हैं, यह बात यदि निश्चित हां जाती हो तो फिर -
१ बलमित्र और भानुमित्रको भगेंच से साथ लेना, २ बलमित्र और भानुमित्र के निमंत्रणको स्वीकार करके भरोंच जाना और पुरोहित के साथ शास्त्रार्थ करना,
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३ ब्राह्मण के वेषमें आये हुए इन्द्रको निगोदका स्व
रूप समझाना, तथा-
४ शिष्योंके प्रमादी होनेके कारण उनको छोड़ कर चले जाना
इत्यादि सारी घटनायें कौनसे कालकाचार्य के समय में, कब और कहाँ पर हुई इसका निर्णय करना बाकी रहता
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इसके अतिरिक्त कालकाचार्यने गुणा कर सके पास दीक्षा ग्रहण की वे गुणाकर मुरि तथा एक कालकाचार्य प्रमादी शिष्योंको छोड़ कर अपने प्रशिष्य मागर चंद्राचार्य के पास जाते हैं, वे सागरचन्द्राचार्य कौन थे ? कब हुए ? इन सब बातोकी शोध करना भी आवश्यक है । ऐतिहासिक विद्वान इस विषयकी और सविशेष रूपमें ध्यान दें, यही अभिलाषा है ।
अनुवादक - भँवरलाल लोढ़ा जैन
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हृदयोदबोधन
हृदय । त कहना मेग मान ।
सर्व बंधुभाव मनमे, नज अनुचित अभिमान | नीच न समझ किसी नक्की तृ, नीच कर्म जिय जान।। १ भाव-भेष-भाषा-भोजन हो भाइयन के सामान । इनको एक विवेक-युक्त कर, हो तेरा उत्थान || २ || क्या जीना जो निज हित जीना, शुक्रर स्वान-समान । करपा यदि देशहेतु कछु, तो तू है धीमान ॥ ३॥ *
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* इटावाके स्व० पडित पुनलालजी टायम उनके पुत्र चौ. बमन्तलालजी द्वारा प्राप्त ।