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________________ फालगण, वीर नि०सं०२४५६] सिरि खारवेल के शिलालेखकी १४वी पंक्ति में होजाता है "धर्मका निर्वाह करने वालों" से नहीं। करते हुए जिसको मुनिजीने उद्धत कियाहै और जिसे अतः मुनिजी का पाठ सहसा स्वीकार कर लेना कठिन लेखक महाशय ने अपनी जाँच में "बहुत ठीक" पाठ प्रतीत होता है। जो हो; यह तो निस्संदेह है कि यह शिला- बतलाया है, लिखते हैं:लख दिगम्बर-श्वेताम्बर प्रभेदसे प्राचीन है और उस "इस लेखकी १४वीं पंक्तिमें लिखा है कि राजा ने में अखंड जैनसंघका दर्शन होता है-किसी संप्रदाय कुछ जैन साधुओं को रेशमी कपड़े और उजले कपड़े विशेष का नहीं । विद्वानों को इसका अध्ययन करना नजर किए-अरहयते पखीनसंसितेहि कायनिसी चाहिये। दीयाय यायगावकेहि गजाभितिनि चिन-वतानि नोट वामा सितानि अर्थात अर्घयतं प्रक्षीणसंसृतिभ्यः यह लेख कुछ बड़ा ही विचित्र जान पड़ता है। जब कायनिषीयां यापज्ञायकेभ्यः राजभतीश्चीनवजाणिवामुनिजी-द्वारा उद्धत पाठ जायसवालजीका ही पाठ है, मामि सितानि । बल्कि उनके नये पाठका ही अविकल रूप है, और उसके इससे यह विदित होता है कि श्वेताम्बर वनधारण "कायनिसीदीयाय यापनावकेहि" शब्दों के करने वाले जैन साधु, जो कदाचित् यापमापक" अर्थविरोध में जो विचार मुनिजी-द्वारा प्रस्तुत किया कहलाते थे, खारवेल के समय में अर्थात् प्रायः १७० गया था उसपर भी यहाँ कोई आपत्तिनहीं की गई और ई०पू० (११० विक्रमाब्दपूर्व) भारत में वर्तमान थे, न उसकासमर्थन ही किया गया,तब समझमें नहीं आता मानो श्वेताम्बर जैनशाखाके वे पूर्वरूप थे।" कि लेखक महाशयने यह लेख लिखनेका कष्टक्यों उठा- ऐसी हालतमें लेखक महाशय का उक्त नतीजा या? लिखकर क्या लाभ निकाला? अथवा किस धनमें निकालना और मुनिजीके पाठको स्वीकार करने वे इसे लिख गये हैं ? आपका यह लिखना भी कुछ में कठिनता का भाव दर्शाना कहाँ तक उचित है इसे अर्थ नहीं रखता अथवा निःसार जान पड़ता है कि सहृदय पाठक स्वयं ही समझ सकते हैं । मुनिजी ने "इस वक्तव्यसे उक्त पंक्तिका सम्बन्ध ठीक खारवेल- अपने लेखद्वारा यदि यह ध्वनित किया है कि सिरि मे होजाता है-'धर्म का निर्वाह करने वालों से "श्वेताम्बर प्रन्थों के वाक्यांसे इस पंक्ति वाक्यों का नहीं।" क्या जायसवालजीके इस वक्तव्यसे पहलेके मादृश्य है" और वह श्रापको इष्ट नहीं तो उसके उनके वक्तव्यद्वारा इस पंक्ति का सम्बन्ध ग्यारवेल से अमरको दूर करनेका यह तरीका नहीं जो असितयार नही होता था ? जरूर होता था। और क्या इमपंक्तिमें किया गया है। उसके लिये शिलालेख का परिश्रम "कायनिसीढीयाय यापज्ञावहिगजभितनिचिन. करके स्वतः अध्ययन करना चाहिये और यदि हो सके चनानि वासा सितानि" पदों के मौजूद होते हुए भी नो जायसवालजी के पाठको बेठीक सिद्ध करना चाहिये, जिस अभी बिना गहरी जाँच के "बहुत ठीक" यह कहा जामकता है कि इसका दूसरोंस, बिलकुल ही बतला दिया गया है ! अथवाजायसवाल तथा मुनिजीमम्बंध नहीं है? कदापि नहीं । खुद जायसवालजीहालके द्वारा प्रतिपादिन अर्थों को ही गलत साबित करना अपने एक लेख में, इस पंक्तिके उमी अंशको उद्धृत चाहिये और दिगम्बर प्रन्थों के साथ इम पंक्ति के उन * देखो, 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' भाग १. ३ पृ०५०१ शब्दोंका अधिक सादृश्य तथा सम्बंध स्थापित करके यह पूरा लेख भी पाठकोंके परिवयके लिये अन्यत्र उपभूत किया बताना चाहिये। तभी कुछ कहना अथवा लिखना वन नकार हो सकेगा। सम्पादक गया है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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