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अनेकान्त
[वर्ष १ किरण ४ सिरि खारवेल के शिलालख की १४वीं पंक्ति
[ले०--श्री० बाबू कामताप्रसादजी]
माघमासके 'अनेकान्त' में श्रीमुनिपुण्यविजयजीने सिरिना जीव-देड-सीरिका-परिखिता।" x सम्राट् खारवेलके हाथीगुफा वाले शिलालेख की १४वीं और इस नये पाठ के विषय में जायसवालजी पंक्तिपर प्रकाश डाला है और उससे यह ध्वनित किया है. लिखते हैं कि:कि श्वेताम्बर ग्रंथों के वाक्यों से इस पंक्तिके वाक्योंका "After Khina one letter was unread सादृश्य है। किन्तु शिलालेखके अक्षरों का ठीक अध्ययन in the rock... The expression seems to
stand for "Yapa-kshina-samsita'='redकिये बिना मुनिजी का बताया हुआ पाठ स्वीकार
ced (expiated) and emaciated by 'Yapa' किया जाना कठिन है । तिसपर स्वयं महोपाध्याय पं०
practices." Another possible reading (if काशीप्रसाद जायसवालने करीब दस वर्ष के परिश्रमके we neglect the Ya' below the line)would बाद इसे नये रूपमें पढ़ा है और उनका यह पाठ बहुत
be Pakhina-samsita-Prakshina-samsita ठीक ऊँचता है। उन्होंने इस पंक्ति को पहले इस रूपमें = thoroughly reduced and emaciated."
Taking Samsita or Samsata =Sanskrit उपस्थित किया था :
Samsrita (round of births),Khina-samsita
would mean "those who have ended [1]प-खिम-व्यसंताहि-काव्य निसीदीयाय याप
their course of births (by austerities),"
that is the perfect ideal Jaina ascetes, भावके हिराज-भितिनि चिनवतानि वोसासितनि
who are believed to have freed them0] पूनानि कत-उवासा खारवेलमिरिना जीव
selves by means of austerities. This is देवमिरि-कम्पम् राखिता [1]
so much idealised in Jain philosophy."
। पूजायरत ete) state that Kharvela having किन्तु अब वे इसी को यूं प्रकट करते हैं -
tinished layman's Vow(rata-urasn-Khat"मपयन विजयिचक( + अकुमारी-पवते भरहयते vela-Sirina) realised (experienced) the (य) प-खीन-सं (1) सन () हि काय
beautyot (ie the distinction bet:) 'Soui'
(Jiva) and matter ( Deha )" (JBORS. निमीदीयाय यापनावकेहि गनमितनि चिनव
XIII. P.233-234) सानि षासासितानि पुजाय-रत-उवास वाग्वल- इम वक्तव्यसे उक्तपंक्तिकासम्बन्धठीक खारवलसिरि ___ * कह पाठ मुनिजी का बताया हुमा नहीं किन्तु खुद के. पी. x इस पाठसे मुनि जी द्वारा उनकृत ग्रंश कुछ भी विभिनताको जायसवाल जीका बताया हुमा है। मुनिजीने तो महज़ उसके प्रर्थ लिये हुए नहीं जान पड़ता । फिर नहीं मालूम इसे तथा इसके साथ पर अपना विचार प्रस्तुत किया है, जिस पर लेखक महाशय ने जायसवालजीके अंग्रेजी क्तव्यको उक्त करनेका लेखक महाशयने कोई मापत्ति नहीं की।
-सम्पादक व्यर्थ ही क्यों परिश्रम कठाया है।" -सम्पादक