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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ४
manasansaanaanama
प्राकृत
कारण नाना प्रकारके कर्मों से बैंधता है। ऐसे साधुकी समससुवधुबग्गो समसहदक्खो पसंसणिंदसमो। मुक्ति नहीं होती।' समलोहचणो पण जीविदमरणे समो समणो॥ उत्तमधम्मण जुदो होदि तिरक्खो वि उत्तमो देवो।
-कुन्दकुन्दाचार्य । चंडालो वि मुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि ॥ 'बन्धुवर्ग और शत्रुवर्ग के प्रति जिसका समानभाव
--स्वामिकार्तिकेय । है-एक को अपना और दूसरे को पराया जो नही तिर्यच भी उत्तमदेवगतिको प्राप्त होता है और चांडाल भी
__उत्तम धर्मसे युक्त हुश्रा-उसे पालन करता हुआसमझता--,सुख यादुःखके समुपस्थित होनेपर जिसका साम्यभावस्खलित नहींहोता-एकका पाकर हर्षित और
उत्तमधर्मका अनुष्ठान करनेसे देवोंका इन्द्र होतो है।' दूसरेको पाकर संल्लेशितजो नहीं होता-,प्रशंसा और
(इससे यह स्पष्ट है कि चाण्डाल जैसे हीन समझे जाने वाले
मनुष्य भी जैन दृष्टिमें उत्तम धर्मके अधिकारी तथा पात्र हैं और निन्दा के अवसरों पर जो समचित्त रहता है-एक से
इस लिये वे उत्कृष्ट जैनाचारका अनुपान कर सकते हैं ।) अपना उत्कर्ष और दूसरे से अपना अपकर्षनहीं मानता-, मिट्टी के ढेले और सोने के डलेमें जोसमताभाव रखता
मणु मिलियउ परमेसरहं, परमेसह वि मणरस । है-एकको अकिंचित्कर और दूसरेकोअपनाउपकारक वाहिवि समरास हुवाह, पुज्ज चढ़ावउ कस्स।। नहीं समझता, इसी तरह जीना और मरना भी जिसकी
-योगीन्द्रदेव। दृष्टि में बराबर है-एकमे प्रात्मधारण और दसरे से . 'जब मन परमेश्वरसे मिलगया-तन्मय होगयाअपने अत्यंत विनाशका जो अनभव नहीं करता, वही और परमेश्वरमनमें लीन होगया, दोनों ही समरस हो 'श्रमण' अर्थान् समताभावमें लीन सबा जैनसाध है। गये; तब मैं पूजा किसको चढ़ाऊँ ? किसीको भी पूजा
(इसमें जनसाधुका जास्वरूप बतलाया गया है वह बड़े महत्वक चढ़ाने का उस वक्त कुछ प्रयोजन नहीं रहता।। है। से ही साधुमास जैनसमाज कभीगौरवान्वित था। भाज कल जो कतिपय साधु सगद्वेषक वशीभूत हुए बलबन्दियां करते हैं. साम्य- मोक्खहं कारण एत्तहउ, अण्णण तंतुण मंतु ॥ भावको भुलाकर निन्दा प्रशसा तथा सामाजिक झाड़-टटोंमें भाग लेते
-योगीन्द्रदेव । हैं उन्हें इस माधुस्वरूपक मामन जैनसाधु मानने में बड़ा ही सकोच होता जिसने विषय-कषायों से अपने मनको हटा कर है । निःसन्दह ऐसे लोग जैनसाधुके पवित्र नामको बदनामकरते हैं। परमात्मामें-निजशुद्ध स्वरूपमें-लीन किया है वहीमाक्ष मुज्झदि पा रग्निदि वा दुस्सदि वादनमपण
को प्राप्त करता है । मोक्षप्राप्तिका यही एक उपाय है ।
इससे भिन्न दूसरा कोई मंत्र या तंत्र उसके लिये नहीं है। मासेज । जदि समणो भएणाणी वझदि
पंचहणायकु वसि करहु, जेण होति वसि भएण। कम्मेहि विवहेरि॥
_ --कुन्दकुन्दाचार्य। मूल विणइ तरुवरह, अवसइंसकहिं पण ॥ 'यदि साधु मज्ञानी है-आत्मज्ञान से परामुख पांचों इंद्रियोंके नायकको-मनको-चशमें करो, है तो वह अवश्य ही परपदार्थ को प्राप्त होकर राग, जिसके वश में होनेसे अन्य सभी इंद्रियों वश में हो देषयामोहरूप प्रवर्तताहै-अथवा उसकी ऐसी प्रवृत्ति जाती है। जैसे कि मूलके नष्ट होने पर वृक्षके पसे खुद उसके भज्ञानी होनेको सूचितकरतीहै-और वह उसके ही सूख जाते हैं ।