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________________ फागुन, पार नि०स०२४५६) सुभाषितमणियाँ २२३ सस्कृत _ 'जिस हृदयमें धैर्य,शौर्य, सहिष्णुता,सरलता,संतोष, सत्त्वज्ञानविहीनानां नैथ्यमपि निष्फलम् । सत्याग्रह, तृष्णात्याग, कषायविजय, उत्साह, शान्ति, न हि स्थान्यादिभिः साध्यान्नमन्यैरतण्डुलैः ।। , H i man इन्द्रियदमन, उदारता,समता और न्याय तथा परमार्थमें -वादीभसिंहसरि । " रति, ये गुण स्फुरायमान हों वहीं मनुष्यताका वास है। 'जोलोग तत्त्वज्ञानसे रहित हैं उनका निम्रन्थसाधु अर्थात् मनुष्यता की प्राप्ति अथवा उसके उदयके लिये साधू हृदय इतने गुणों से संस्कारित होना चाहिये।' , बनना भी निष्फल है क्योंकि यदितण्डुलादिक भोजनकी सामग्री नहीं है तो महज पतीली आदि पात्रोंका संग्रह शद्रे चैष भवेदवतंबाखणेऽपि न विद्यते। कर लेनेसे ही भोजन निष्पन्न नहीं हो सकता।' शद्रोऽपि वामणो यो ब्राह्मणः शुद्र एव च। (इससे स्पष्ट है कि जैन मुनियोंकि लिये तत्वज्ञान सबमे अधिक जरूरी है, वह यदि नहीं है तो उनका निम्रन्थ वेष धारण करना भी -महाभारत। निरर्थक है।) 'एक शूद्रमें सदाचार पाया जाता है जब कि एक "भावहीनस्य पूजादितपोदानजपादिकम। ब्राह्मणमें वह नहीं देखा जाता । अतः सदाचार-संयुक्त व्यर्थ दीक्षादिकंचस्यादजाकंठे स्तनाविव ॥" , शूद्रको भी ब्राह्मण और सदाचार से रहित प्रामाणको भी शूद्र समझना चाहिये। 'बिना भावके पूजा आदिकका करना, तप तपना, दान देना, जाप्य जपना-माला फेरना-और यहाँतक (इससे शूद्र सदाचारका पात्र ही नहीं किन्तु उसके प्रभाव से ब्राह्मण बनने का भी अधिकारी है।) कि दीक्षादिक धारण करना भी ऐसा ही निरर्थक हैजैसा कि बकरी के गलेका स्तन । अर्थात् जिस प्रकार बकरी "पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पण्यं नेच्छन्ति मानवाः। के गले में लटकते हुए स्तन देखने में स्तनाकार होते हैं फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति यत्नतः ।।" परन्तु वे स्तनों का कुछ भी काम नहीं देते-उनसे दूध नहीं निकलता--उसी प्रकार विना भावकी पूजनादिक 'मनुष्य पुण्यका फल सुख तो चाहते हैं परन्तुपण्य क्रियाएँ भी देखने की ही क्रियाएँ होती हैं, पूजादिकका __कृत्य करना नहीं चाहते!-उसके लिये सौ हीले बहाने वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता।' " बना देते हैं-और पापका फल-दुख-कमी पाहवे (जो भाव इन सब क्रियामोंका जीवन और प्राण है यह तत्त्व - नहीं-उसके नामको सुनकर ही घबरा जाते हैं-फिर भी पाप को बड़े यल से करते हैं !!' ज्ञानके बिनानहीं बन सकता इसलिये तत्त्वज्ञानका होना-इन क्रियामोंके । मर्मको पहचानना-सर्वोपरि मुख्य है । इसीसे जैनाचार्योने चारित्रसे (यह ससारी जीवोंकी केसी उलटी रीति है। एसी हालकमें पहले सम्यग्ज्ञानके माराधनका उपदेश दिया है और उस चरित्रको कारण-विपर्यय होनेसे दुखकी निति और सुखकी प्राप्ति केसे हो मिथ्या चरित्र एवं संसार-परिभ्रमणका कारण बतलाया है,जो सम्य सकती है ? इसी बातको पविने इस पथ सखेद अमित किया है।) ज्ञान पूर्वक नहीं है।) __ "अनुगंतुं सतां वर्त्म कस्स्नं यदि न शक्यते। धैर्य शीयसहिष्णते सरलता संतोषसत्याग्रहों स्वल्पमप्यनगंतव्य मार्गस्थो नापसीदति ॥" तष्णायाविलयः कषायविजयःमोत्साहनं मानसी 'सत्पुरुषों के मार्ग पर यदि तुम पूरी तौर से नहीं शांतिदान्तिरुदारताच समता न्यायेपरार्थरति- चल सकते तो भी थोड़ा तो चलना ही चाहिये, क्योंकि चैते यत्र गुणाः स्फुरन्ति हृदये तत्रैव मानुष्यकम् ॥ ओ मार्गपर लगजाता है वह दुःख नहीं पाता-अन्यथा --मुनिरलचन्। मार्ग भटक कर ठोकरें ही खानी पड़ती हैं।'
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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