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________________ X X X xx-वन्द २३४ भनेकान्त [वर्ष १ किरण ४ हिन्दी उर्दू बिना भाव के बाह्य-क्रियासे धर्म नहीं बन पाता है, दया वह धर्म है जिसपै कि कुदरत नाजर करती है। रक्खो सदा भ्यानमें इसको, यह आगम बतलाता है। सदाकत नाज करती है, कदामत नाज करती है । भाव-बिना जो व्रत-नियमादिक करके ढोंग बनाता है, असूलों पर इसी के शाने वदहत नाज करती है। आत्म-पतित होकर वह मानव ठग-दंभी कहलाता है। हकीकत में अगर पूछो हकीकत नाज करती है। x x x . -'नाज' -'यगवीर' किसी दनिया के बन्दे को अगर शोके हुकूमत हो। माला तो कर में फिरे, जीभ फिरै मुख माहिं । तो मेरा शौक दुनियामें फलतः इन्साँकी स्त्रिदमत हो॥ मनुवाँ तो दहुँ दिस फिरै, यह तो सुमरन नाहि ॥ xxx x x -कबीर। "नहीं कुंजेखिलवत' की उस को जरूरत । दादू दीया है भला, दिया करो सब कोय। जो महफिल को खिलवतसरा१० जानता है ।।" घर में दिया न पाइये, जो कर दिया न होय ॥ .. X X . X . x x -दादूदयाल । ल। "इस घरको आग लग गई घर के चिरारा से । सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल-सहाय। दिल के फफोले जल उठ सीने" के दारा से । पवन जगावत भाग को, दीपहिं देत बुझाय ॥. "ऐ फट ! तने हिन्द की तुर्की तमाम की। भरि हुँ दन्त तन गहहिं ताहि मारत नहिं जग कोइ। लोगे का चैन खो दिया राहतार हराम की ।।" xx X हम संतत तन चरहिं वचन उपरहिं दीन होइ॥ किसी बेकसको ऐबेदादगर! मारा तो क्या मारा ? अमृत-पय नित सवहिं वत्स महि-थंभन जावहिं, जो खद ही मर रहा हो उसकोगर मारातोक्यामारा ? हिन्दुर्हि मधुर न देहिं कटुक तुरकहिं न पिवावहिं ॥ न मारा आपको जो खाक हो अक्सीर बन जाता। कह नरहरि अकबर सुनो, बिनवत गउ जोरे करन । अगर पारे को ऐ अक्सीरगर ! मारा तो क्या मारा ? केहि अपराध मारियत मोहे, मुयेहु चामसेवत घरन।। बड़े मूजी को मारा १४नसेअम्मारा को गर मारा ? X x -नरहरि । महंगो प्रजदहाश्रो५ शेरेनर मारा तो क्या मारा ? तोड़ने दूं क्या इसे नकली किला मैं मान के । -जोक' पूजते हैं भक्त क्या प्रभु-मूर्ति को जड जान के॥ "जेवर पिन्हाना बच्चों को हरगिज ६ भला नहीं। अझजन उस को भले ही जड कहें भाजन से। पर क्रिस्म सीमोजर' से न हो तो बुरा नहीं । देखते भगवान को धीमान उस में ध्यान से ॥ जिस हाथ में कड़ा हो वह टूटे तो क्या अजब ? x x -मैथिलीशरण। हंसली हो जिम गले में समझ लो गला नहीं ।।" कानन में बसै ऐसौ भान न गरीब जीव, xxx प्रानन सौं प्यारौ प्रान पूंजी जिस यह है। अवस१७ अपनी हस्ती पै फूला हुआ है। फायर सुभाव धरै काहू सौं न द्रोह करै, जियेगा हमेशा न कोई जिया है । सब ही सौं रै दाँत लिये तिन' रहे है। है दो साँस पर जिन्दगानी बशर ८ की। काहू सौं न रोष पुनि काहू पैन पोष चहै, कि एक पा रहा दूमरा जा रहा है ।। __ x x . . 'दास' काहू के परोष परदोष नाहिं कहै है। १प्रकृति.२गई.३ सत्यता.नित्यता.५सिद्धान्तों.वित्त नेकु स्वाद सारिवे कौं ऐसे मृग मारिवे को, ७वास्तविकता. केवल. एकान्त कोण. १. एकान्त स्थान. ११बाती. १२ सुख-शांति. १३ गरीष-निःसहाय. १४ दियविषय. -भूधरदास। १५मागराज. १६ सोना-चांदी-जवाहरात. १७पर्थ. १८ मनुष्य. x X
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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