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________________ माघ, वीर नि० सं०२४५६] विधुवर दीप्त; स्वर्ग से चुरा कर लाये हुए इन्द्र के विलास-कक्ष वहीहोगा,-या नहीं? क्या होगा-देखें ? . सा मनोरम; नंदन-सा सुरभित; मूर्खाग्रस्त रमणी-सा इन अप्सराओं से बोलो मत,-चिहुँक पड़ेंगी। सुकोमल, सुशांत और लोभनीय; जिसमें स्वप्न तैरते उन्हें एकाग्रतामे च्यत किया तो तुम क्षम्य न होगे । रहते हैं, और कामदेव अलकसाया पड़ा रहता है, वह उन्हें अपने में व्यस्त रहने दो।-और पानी, हमारे अवर्णनीय कमरा । यहाँका सब कुछ जैसे, बाहें फैला साथ दूसरी ओर मुड़ो। कर तुम्हें आलिंगन-पाश में बांध लेने को, लालसा से आकुल और मद-मूळमें विकल पड़ा है। उसी में पड़ी कुमार इधर शाम को टहल कर लौटे हैं कि बन्धुहैं चार रमणियाँ जो, जल में मीनकी तरह, मानों इसी बान्धवों ने घेर लिया है। कोई ठठोली करते हैं, कोई वातावरण में खिलने-खेलने को बनी हैं, जिनका परि- बधाई देते हैं, कोई तरह-तरह की चर्चा छेड़ते हैं। ऐसे धेय हठात, यहाँ-वहाँ से खिसक पड़ा है। ये रमणियाँ भी हैं जो इस समय भी शास्त्र-चर्चा करना चाह रहे उस धार के न इस ओर हैं न उस ओर जो कैशोर हैं। कुमार यथा शक्य सबमें योग देते हैं। किंतु इस और तारुण्य इन दो तलोंके मिलनेसे बन जाती है, वे प्रत्यक्ष सुहँस वाचालता के भीतर जो एक विमल गंठीक उसी धारके ऊपर खड़ी हैं । इसीसे ये उन कलि- भीरता है, वह छिप नहीं पाती। योंकी तरह ताजा हैं जो इसी क्षण फूल बनने पर आ एक-(कुमार की ओर बात ढालते हुए) अब इन्हें गई हैं, जिनके प्रस्फुटन की सम्पूर्णता बस अभी-अब ज्यादे नहीं रोकना चाहिये । इन्हें आज सोने की सम्पन्न हो रही है। मानों ये बालाएँ अाज ही रात जल्दी लगी होगी। स्त्रीत्व-लाभ करनेकी ओर उन्मुख हैं । श्राज इनमें वह दूसरा-ठीक तो है। हमारे रोकने से यह मक भी तो . तारुण्य फूला है कि बस । मानों अपने प्रस्फुटनके सौं- नहीं सकते... दर्य को छिपा कर नहीं रख सकतीं-वह उघड़ा जो कुमार-रोकने की क्रिक में न पड़ें। मुझे खुद मनका आता है; छिपानेसे अन्याय जो होगा; इसीमे आवरण खयाल है। इधर-उधर खिसक खिसक पड़ता है । उसे सिमटाना तीसरा-मैं आपको चौगुनी बधाई देना चाहता हूँ। तो होता ही है, पर वह फिर भी तनिक अस्त-व्यस्त कुमार-आप चाहं जितने गुना धन्यवाद वापिस ले हुए बिना नहीं रहता। ''आज क्या होना है! लीजिये। ये चारों, इस स्वर्ग-कक्ष में, अपने ही आपमें व्यस्त एकने इन बातों पर स्वरमें जरा झलाहट लाकर कहाहैं।मानों किसी की प्रतीक्षा में हैं और उसके आन किंतु इन बातों में लगना अधर्म है। प्रात्मा का पर वे किस पद्धतिसे वार आरंभ करेंगी, प्रत्येक इसको, स्वभाव अपने-अपने मन में स्पष्ट करने में लगी है । ''वह कुमार- 'निश्चित है। बातों में बहक नहीं सकता। प्रतीक्षित सौभाग्यशाली कौन है ? .'' उसका क्या वह व्यक्ति-सराग चर्चा पापमूलक है। भाग्य होगा? कुमार-सराग चर्चा पापमूलक है, किन्तु वीतरागता मानों द्युतिमान स्त्रीत्व, दल-बल और छल के भी चर्चामें नहीं होती। वीनरागता भीतर उत्पन्न होती साथ, लज्जाके सब पुष्प-शर और निर्लज्जता के सब है, और हो जाती है तो कृत्यमें परिणत हुए बिना विष-शर तय्यार रखके, इन्द्र के पौरुषको चुनौती देने नहीं रहती। के लिये, उसके अखाड़े में, स्पर्धा के साथ उसकी बाट xxx जोह रहा है !-या तो पौरुष लुंठित होगा और गल आदि-आदि व्यस्ततामों में उनका समय जा रहा जायगा, या बीत्व ही कुंठित होगा और नतमस्तक हो है, और उधर सद्य-परिणीता पधुएँ उनकी प्रतीक्षा में जायगा। क्या होगा ?-जो सदासे होता आया है, होंगी-इस सबका खयाल कुमार को है । पर उनकी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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