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________________ १८४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ पिता इस हठ को मोड़ या तोड़ सकनेमें अकृत- तर जाने लगी, तो जा नहीं पाई, चूंट बन कर गले में कार्य ही रहे । अंतमें पितत्त्व के अधिकारके नाम पर, अटक बैठी । तब कपोल सिन्दूरिया होकर फल से कुछ दिनकी मोहलत अवश्य स्वामी जंबकुमार को गये, और बात निकलते-निकलते भी न निकली । पर देनी पड़ी। उस लज्जा ने, उस बात को, और ही ढंग से व्यक्त कर ___ तब इसकी सूचना उन वाग्दत्ता चार कन्याओं के देने का जो प्रायोजन कर दिया था, उसे पढ़ने में भूल पिताओं के पास पहुँचाई गई । पिताओं को क्षोभ हुआ, संभव ही नहीं हो सकती । कोई पढ़ देखता, उस रूपपर उन्होंने खैर मानी। सोचा, ब्याहसे पहिलेही स्वामी श्री के रूप पर और श्री पर, भाव में, भंगी में, और की यह इच्छा प्रगट हो गई, चलो अच्छा ही हुआ। चेष्टा में, आँखों के झंप जानेमें और देह के कंटकित कन्याओंके भाग्य तो फटनेसे बच गये । ब्याहके बाद होजाने में, असंदिग्ध रूपमें लिखा था कि-यह कन्या कहीं ऐसा होता तो उनके सिर वैधव्य...! चुपचाप ही अपना सर्वस्व किसी के चरणोंमें छोड़ कर ___ इसकी सूचना कन्याओं को बुला कर दे दी गई। और उसके नामका सुहाग ओढ़ कर, उस नाम के साथ ही यह प्राश्वासन भी दे डाला गया कि पिता अक्षरोंका बैठी-बैठी जाप करती रही है, और अब उनके लिये, स्वामीसे भी सुंदर, सुयोग्य, सुपात्र वरकी पिताकी बात पर कह रही है-न, न, नहीं। खोज कर देंगे और इस लिये कन्याओं को खिन्न और x x x चिंतत होने की आवश्यकता नहीं है। तो उन चारों कन्याओं ने, इस आकस्मिक संवाद ___ किंतु यह उस कालकी बात है जहाँसे बीसवीं सदी पर, मिल बैठने का संयोग निकाल लिया । और चारों २५ शताब्दीदर थी । कन्याओंने पिताओं द्वारा दिये जनियों ने बैठ कर निर्णय किया कि कुछ हो, विवाह गये आश्वासन को अवहेला के साथ फेर दिया । तुरंत हो जाय । विवाह के अगले दिन ही स्वामी चाहें उन्होंने सांत्वना नहीं चाही, पति के जीवित रहते भी और सकें तो दीक्षा ले जॉय । उन्होंने सोचा-ब्याह कटने वाला वैधव्य उन्होंने सुहाग के रूप में अपना होजाने दो, फिर देखें वह दीक्षाकी बात पर कैसे कायम लेना स्वीकार किया। रहते हैं ! कन्याओं के सर्वसम्मत इस निर्णय पर उन पद्यश्री ने कहा-परिणय होगया। परिणय के पिताओंको भी एक सम्मत होजाना पडाः और वे इस साथ खेल हमसे अब नहीं होगा। स्वामी जायेंगे, तो संदेशको लेकर श्रेष्टिवर अहदास की सेवा में पहुंचे। उनकी स्मृतिको लेकर हम रहेंगी। पर यह वीतरागी श्रेष्ठ प्रहदास मुर्भाई मन स्थिति में खिन्न बैठे होकर जॉय और हम उनकी स्मृति पर कलंक डालें! थे। इन लोगों के निवेदन पर जैसे उन्हें संतोष का -न-श्र, कभी नहीं। ___ अवसर दीखा । उन्होंने इन चारों पिताओंकी बात सविनयश्री ने कहा-पिताजी, हमारी बिडम्बना न हर्ष सम्मत कर ली। करें । ब्याह ही जीवन की कृतार्थता है क्या ? फिर जम्बुकुमार तो मांगी हुई मोहलत के कालके लिये उसके संबंधमें इतने उत्साहसके साथ चिंता करने क्यों अपने को सर्वथा पिता की माझानों पर छोड़ चुके थे। बैठते हैं ? उन्हें कहने को कुछ शेष न था। . कनकभी बोली-परिणीतानहीं हूं-वाक्परिणय परिणामानुक्रम से स्वामी जम्बुकुमार का विवाह के बाद मैने ऐसा समझा ही नहीं। विवाह का शेष पद्मश्री, विनयभी, कनकभी, और रूपश्री इन चार कअंश सम्पन्न होने से रह जाय तो यह मेरे भाग्य का न्यानों के साथ, एक साथ, सधूमधाम संपन्न होगया। रूपश्रीने बोलना चाहा, पर बोल नहीं पाई। पिता सुहाग रातकी रात । संयोग-सजाके सब सामानों के वक्तव्य पर जब और अंगों पर फैल कर लाज भी- से बिलसित मणि-मासिकके दीप्तों की दीप्ति से परि
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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