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________________ कुसाटक जैनकवि माघ, वीर नि०सं०२४५६] कम दुःख है कि आपकी सेवाका अवसर मैं खो रहा रोग आता है, तो क्या मैं उसे मापसे हटा कर अपने हूँ ? किंतु शाश्वत, सर्वोपरि और यथार्थ सेवा का जो ऊपर ले सकता हूं? किसी भी असाताके उदयको बाँट मार्ग दीखा है, उस पर चलने की प्रेरणा अनिवार्य है। सकता हूं? मतलब कि आप मेरी केवल उपस्थिति से कोई जैसे भीतर से मुझे उसी ओर ठेल रहा है । वही ढाढस पाते हैं,और आपका कोई प्रयोजन उससे सिद्ध मार्ग प्रकृत मार्ग है, इसमें मुझे संशय नहीं, क्योंकि नहीं होता । मैं आपके ही आपके सामने उपस्थित रहूं, उसी पर चलनेके लिये, अज्ञानके निर्देशकी तरह, एक सन्निकटसे सनिकट रहूं-यही आपका भाव है। यह प्रकृत प्रेरणा मुझे उकसा रही है। आप भी, अन्ततः कैसे भी क्या सर्वथा संभव है ? क्या जब-तब आपको उसी सचाई पर आयेंगें, और तब आप मुझे धन्यवाद मुझसे और मुझको आपसे अलग होना नहीं पड़ता ? देंगे । इन क्षुद्रताओं और व्यर्थताओं से मुझे छुट्टी लेने फिर इस भाव की रक्षा भविष्यमें केवल परमित काल दीजिये, जिससे मैं निग्रंथ, निराविल, और निस्संग, तक हो सकती है। उस बातके संबंधों कातर और सत्य से एकाकार होकर रह सकू-'सो ऽहम्' । जिस आतुर होनेसे क्या परिणाम जो एक न एक दिन टूटसे मेरा 'यह' और मेरा 'वह' , यहाँ तक कि मेरा नी तो है ही। फिर क्या पिताजी, यह सच नहीं है कि शरीर भी, मुझ में और सत्यमें विचित्रता न पैदा कर आप मुझे सुखी देखकर हो अधिक प्रसन्न होते हैं ? तो सके । जिससे मैं ही मेरा ध्येय बन जाऊँ शुद्ध सत्ता फिर मेरा सुख किसमें है, यह जान कर भी भाप मेरे के रूप में ही, सन्-चित्-आनंद होकर रहूँ।" सुखकी राहमें आकर क्यों खड़े होते हैं ? पिताजी,श्राप "बेटा, क्या कहते हो ? -मुझे डर लगता है। देखते हैं, जीवन में दुःख इतना परिपूर्ण और सुख इतना जंगल में रह कर, तिल-तिल करके शरीर तो खोया क्षीण है कि जीवनसे ममता होना विस्मय-जनक जान जायगा; पर प्राप्त क्या होगा, समझ में नहीं आता। पड़ता है । और एक-दूसरे के संबंध में व्यक्ति इतना तुम्हारी आत्मसिद्धि वहाँ कहाँ रक्खी है, मुझे नहीं हीन और असमर्थ है कि परस्पर ममत्व पैदा करके, मालूम ; पर वहाँ पग-पग पर कष्ट और संकट हैं, यह 'मैं-उसका' 'वह मेरा' आदि धारणाओंकी सहायतासे मुझ जैसा आदमी भी जानता है । कुमार, तुम्हें किन अपने परिणामोंको मलेशित करनामूर्खता जान पड़ती सुभीतोंके बीच में मैंने पाला है ? अभाव का तनिक है। इसी कारण किसी के लिये इस दंभका भी अबनाम तुमने नहीं जाना । घर छोड़ कर चले जाने से काश नहीं कि वह अपनेको दूसरे का सहायक और फिर अभावही अभावमें तुम्हें रहना पड़ेगा । वहाँ कौन उपकारी समझे । पिताजी, कर्मों से जकड़ा हुआ मैं होगा जो तुम्हारी संभाल रक्खे ? पिताको और माता इतना हीन हूँ, कि आपका जरा दुःख टाल सकूँगा, को, जिन्होंने लाइसे और चावसे तुम्हें पाल-पोस कर एमा संबोधन मेरी आत्माको नहीं हो पाता । अपने बड़ा किया है, जो तुम्हें देख कर ही जीते रहे हैं और कर्मों के हाथमें व्यक्ति कितना अपदार्थ है ! जो करता तुम्हें न देख कर कैसे जीते रह सकेंगे-कांटोंमें चले है, जो सोचता है, उन्हीं का बंधन, उन्हींका परिणाम, जाने के लिये, उन्हींको छोड़ कर तुम किस मुँह से व्यक्तिको जो करवावे, करना होगा । इन कर्मों पर जाना चाहते हो ? बेटा, तुम क्या बुद्धे बापकी इतनी- स्वामित्व प्राप्त करना,उनकी अधीनतासे मुक्त हो जाना; सी बात नहीं मानोगे ?" जीवनके इसी ध्यय पर मैं चलने की आप से माझा • "पिताजी, आप व्यर्थ क्यों चिन्ता करते हैं ? यदि चाहता हूं। तब मैं अपदार्थ नहीं रहूंगा । शक्ति मेरी आप तनिक स्वस्थ होकर सोचेंगे तो मुझे सहर्ष पाशा निस्सीम हो जायगी, बंधन निश्शेष हो जायेंगे, आनंद देंगे । मैं क्या कुछ आपकी विशेष सहायता कर पाता अव्यावाध हो जायगा । पिताजी, इसीमें जगतका और हूँ? शारीरिक सेवा मुझसे भापकी कितनी बनती है? मेरा प्रकृत कल्याण है।" । क्या मैं दिन-दिन पाते वार्धक्यको रोक सका हूं? जब X X
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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