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________________ १८२ अनेकान्त [वर्ष १, किरणं ३ क्या करेंगे ?-यह महल का महल क्या उठाकर घटना (phenomenon) एकदम इतने अद्भुत, मचिफैंक देंगे ? क्या करेंगे? तनीय और उल्टे रूप में घट गई कि, नहीं जानता, वह कु०-नहीं फेंक सकूँगा-यही तो आप कहते हो?- उसका क्या बनाये । जिस स्वार्थको, अपनी विवेचना मैं भी यह देख रहा हूँ। फिर, क्या करूँ, यह से, जीवन-क्रम भित्ति बना कर वह आगे बढ़ा था, सवाल है। उसी स्वार्थ पर उसने स्वामी को लात मारते देखा । व्या०-तो इन रत्नों को दे डालने से आप थोड़ी सी ऐसी अभूतपूर्व बातको देख कर एक अभूतपूर्व विप्लव मनकीशाबाशी जीत लेंगे, और तो कुछ न होगा। सा उसके भीतर मचने लगा । इस विप्लवका यदि कुछ कु०-(अस्त व्यस्त भाव से ) आपने ठीक जताया। उंगलीरख-सकने योग्य परिणामहुआ तो यह कि स्वामी इनको ही फेंकने से तो काम नहीं चलेगा। जैसा के यहाँ चोरी करनेके उसके इरादे में और दृढ़ता श्रा आपने कहा, थोड़ा मनकी शाबाशी जीतने का गई। बहाना हो जायगा। आगे कुछ नहीं।.... (८) व्या०-और सब कुछ भी फेंक सकें तब तो... स्वामीकी विमनस्कता दिन-दिन गहरी होने लगी। कु०-(उसी भाव से) ठीक, और कुछ भी फेंक सकं, मन उचाट रहता,जैसे सबसे भर कर उकता गया हो । जभी तो... भोगोंकी ओर से विरक्ति होती, संभोग्य पदार्थों से व्या०-'उनको नहीं अलहदा कर सकते, खुद अलग वितृष्णा छूटती । उन्हें लगता, जैसे चारों ओर फैला हो जाइये। यह जगवाल है, जो उन्हें लुभा कर, बहला कर,भरमा कु०-'उनको नहीं अलहदा कर सकता, खुद अलग कर अपने में ही फँसा रखना चाहता है-मेरी यथाहो जाऊँ । “ठीक । ठीक तो है। जरूर र्थता, कृतार्थता, मेरी पूर्णता और आत्मसिद्धिको लोक यही ठीक है।'श्रापका, महाशय बड़ा उपकार में नहीं पहुँचने देता । उनका मन, मानों, सदा उसी मानतो हूँ।'यही ठीक है। लोक में रहता है । कुटम्बीजन उस मनको यहाँ लगाने व्या - तो आप यह करेंगे ? के जितने ही प्रायोजन करते हैं उतना ही वह और कु०-''नहीं तो क्या करूँगा ?: 'यही करूंगा। ... असंतोषके साथ खिज उठता है । अब और अधिक इन्हें अलग नहीं फेंक सकता । तो खुद तो अलग घर रहना उनके लिये असंभव-प्राय हो गया है । मुनिभाग सकता हूँ। इनमें बंधा हुआ, पिसता हुआ, दीक्षा ले जानेको वह अत्यंत आतुर हो गये हैं। कब तक रहूँ ?-क्यों न हलका और उन्मुक्त, ___ एक दिन अपनी हृदयाकांक्षा पिता के सम्मुख बधन हीन होकर, अपना ही आप होकर रहँ, उन्होंने कह डाली। अपने ही आपमें रहूँ, बस आपमय होजाऊँ ?- पिता कुमारके रुखसे बिल्कुल ही अपरिचित नहीं यही करूँगा। थे। इस दुनिया में रहते भी कुमार के विचार सतत X X X जिस लोकमें विचरते रहतेथे, उसका आभास पिताको विशुधरने फिर बिदा ली। उसकी आत्माको एक था।किंतु पिता, बलान् , उस संबंधमें अपनी चिन्ताको अदुत तुष्टि थी । पर इस तुष्टिके साथ ही उसकी विवे- टलाते आये हैं। अब कुमार ने, अपने ही मुँह से जो अनामें एक तुमुल प्रलयकारी बीज उग उठा। मानों स्पष्ट शब्दों में बात कह दी, तो जिसको टलाते आये किसी वस्तुने आकर उसकी जीवन-धारणकी नींव पर थे और जिससे डरते आये थे, वही घड़ी आ गई। ही व्याघात करनेका यल प्रारंभ किया है। जैसे कुछ पिता मानों तर्ककी शक्ति खो बैठेचीज आकर उसका आधार ही छीन लेने का उपक्रम "यह क्या कहते हो, बेटा!" बाँध रही है। स्वामी जम्बुकुमार के साक्षात्कार की "पिताजी,"कुमारने कहा "हट न हों। मुझे क्या
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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