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________________ ५२१ प्राषाढ, श्रावण, भाद्रपद वीरनि०सं०२४५६] अकलंकदेव चित्रकाव्यका रहस्य चित्रकारी है। इन सब बातोंके अतिरिक्त, यह पद्य अब मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि प्रथम हारा -साहित्यकी दृष्टिसे भी प्रायः सर्वत्र समान है- वली-चित्रस्तवके शुरूमें जो बारह पद्य हैं वे ही पथ इसका दूसरा और तीसरा चरण सब हारावलियोंमें ज्योंके त्यों अकलंकदेव-नामाङ्कित 'चित्रकाव्य' में पाये एक है,चौथा चरण भी तीन हारावलियोंमें एकही है- जाते हैं, और इससे, 'हारावली' के उक्त परिचयको पहलीमें वह थोड़ीसी विशेषताको लिये हुए है-और ध्यानमें रखते हुए, यह स्पष्ट जान पड़ता है कि ये पद्य पहला चरण मात्र नायकमणिके नामके परिवर्तनको 'हारावली-चित्रस्तव' से लिये गये हैं। हारावली-चित्रही लिये हुए है। जैसे पहलीमें 'इत्थं नायकपद्मराग- स्तव के निर्माता चारित्रप्रभ सरि के शिष्य 'जयतिलक' रुचिग, तीसरी में 'इत्थं नायकबज्रबन्धरुचिरा', सूरि हैं, जो कि 'आगमिक-जयतिलकसरि' कहलाते हैं दूमरीमें 'इत्थं स्वस्तिकनायकन रुचिरा' और चौथी और एक प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान हैं। मालम होता में 'इत्थं बन्धकनायकेन रुचिरा' ऐसा पाठभेद है। है अकलंकदेव नामके किसी भट्टारकनं अथवा अकबाकी 'सत्कंठभषाकरी' यह चरणाँश सब में स- लंकदव के नामसे किमी दूसरे ही शससने इन पगामान है। के अंतमें अकलंकदेवके नामादिकका एक पग जोड़ इस तरह यह 'चतुर्हारावली-चित्रम्तव' नामका कर, जो कि बहुत कुछ साधारण, चित्रकलास म्तात्र एक ही विद्वान् कवि रचे हए चार स्तांत्रीका रहित एवं बे-मेलसा है, इन्हें अपनी अथवा अपने मंग्रह है, जिनमेंमें प्रत्येक 'हारावली-चित्रम्तव' कहलाता स व सम्प्रदायकी कृति बनानेकी दुश्चेष्टा की है । इस प्रकार है और यह नाम बहुत मार्थक जान पड़ता है, क्योंकि के प्रयत्न निःमन्देह बड़े ही नीच प्रयत्न है और वे स्तुतिपथके प्रत्येक पादक आदि और अंतमें तीर्थकरें- स्पष्ट रूपम जालमाजी तथा काव्य-चांगको लिये हुए के नामाक्षरोंका जो विन्यास किया गया है वह हारका हैं। जो लोग दूमरोंके साहित्यपर ऐमी डाकेजनी अनुकरण करता है-हारमें जिस प्रकार आदि और करते है उन्हें मामदेवाचार्यनं माफ नौर पर 'काव्यअंतकी मणियाँ बराबर रहती हैं उसी प्रकार इसके एक पद्यमें एक और श्रादि । पूर्वक्रमानुवर्ती ) नीर्थकरके कृत्वा कृनीः पूर्वकताः पुरुस्तानामाक्षर हैं तो दूसरी ओर अन्त्य (पश्चिमक्रमानुवर्ती) त्पत्याद ताः पुनरीक्ष्यमाणः । तीर्थकरके नामाक्षर हैं। यही बात स्तात्रकी स्वपिन तथैव जन्पदय योऽन्यथा वा टीका * की प्रस्तावनामें निम्न शब्दों द्वारा भी मुचित सकाव्यचोगेऽस्तु स पातको च॥ की गई है : ___ इस प्रकारके काव्यचार दिगम्बर और श्वेताम्बर ___पादस्यायन्तयोहारानकार विन्यस्तैर्जिन- दोनों ही सम्प्रदायोंमें होते रहे हैं । कई वर्ष पहले मेरे नामवर्णेश्चत्वारः स्तवाः। द्वागऐसे लोगोंके कुछ प्रन्योंकी परीक्षा भी की जा चुकी * इस टीकाका मंगलाचरण इस प्रकार है: है। कभी किसी दिगम्बरने श्वेताम्बगेंक विवेकविलाभ्यात्वाईनः महत्तेजः सुखव्याख्यानहेतवे। स' को 'कुंदकुंवश्रावकाचार' बनाया था तो एक श्वेताचतुर्हारावलीचित्रस्तवटीको कराम्यहम् ।। बराचार्यन दिगम्बराचार्य अमिनगनि की 'धर्मपरीक्षा'
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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