SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मार्गशिर, वीरनि० सं० २४५६] सम्पादकीय ४ जैनी नीति तत्वको निकाल लेती है-उसे प्राप्त कर लेती है। किसी एक ही अन्त पर उसका एकान्त आग्रह अथवा कदाजिनेंद्रदेवकी अथवा जैन धर्मकी जो मुख्य नीति ग्रह नहीं रहता-वैसा होने पर वस्तुकी स्वरूपसिद्धि है और जिस पर जिनेन्द्रदेवके उपासकोंतथा जैनधर्मके ही नहीं बनती। वह वस्तुके प्रधान अप्रधान मब अनुयायियोंको-जैनियोंको-चलना चाहिये उमे अन्तों पर समान दृष्टि रखती है उनकी पारस्परिक 'जैनी नीति' कहते हैं। जैनियोंकी नीति भी इसीका अपेक्षाको जानती है-और इसलिये उमे पूर्ण रूपमें नाम है । वह जेनी नीति क्या है? अथवा उसका क्या पहचानती है तथा उसके साथ पूरा न्याय करती है । म्वरूप और व्यवहार है ? इस बातको श्रीअमृतचंद्र उसकी दृष्टि में एक वस्तु द्रव्य की अपेक्षास यदि नित्य सरिन अपन एकवाक्यमें अच्छी तरहसे दर्शाया है, जो है तो पर्यायकी अपेक्षामे वही अनित्य भी है, एक इस प्रकार है : गणके कारण जो वम्त बरी है दसरे गणके कारण एकनाकपन्ती श्लथयंती वस्तुतत्वमितरण। वही वस्तु अच्छी भी है, एक वक्तमें जो वस्तु लाभ दायक है दूसरं वक्तमें वही हानिकारक भी है, एक अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रभिवगापी । म्थान पर जो वस्तु शुभरूप है दूसरे स्थान पर वही इसमें, जैनी नीतिको दृध-दही बिलोने वाली ग्वा- अशुभरूप भी है और एकके लिये जो हेय है दूसरेक लिनीकी उपमा देते हुए, बतलाया है कि जिस प्रकार लिये वही उपादेय भी है । वह विपको मारने वाला ही ग्वालिनी बिलात समय मथानीकी रस्मीको दोनों हाथों नहीं किन्तु जीवनप्रद भी जानती है, और इम लिये में पकड़ कर उसके एक सिर (अन्त)को एक हाथसे उसे सर्वथा हेय नहीं समझती। अपनी ओर खींचती और दूसरे हाथ पकड़े हुए सिर इमजैनी नीतिका ही मुख्य नाम 'अनेकान्त' नीति को ढीला करती जाती है, फिर उस ढीला किए हुए अथवा 'अनेकान्तवाद' है, जो अपने स्वरूपसे ही सौम्य, सिरेको अपनी ओर खींचती और पहले खींचे हुए सिरं उदार,शान्तिप्रिय, विरोधका मथन करने वाली, वस्तुतको ढीला करती जाती है; एकको वीचने पर दूसरंको त्व की प्रकाशक और सिद्धिकी दाता है । खेद है,जैनिबिलकुल छोड़ नहीं देती किन्तु पकड़े रहती है; और (योने अपने इस आराध्य देवता 'अनकान्त का बिल्कुल इस तरह विलीनकी क्रियाका ठीक मंपादन करके म-भुला दिया है और वे आज एकान्तके अनन्य उपासक क्खन निकालने रूप अपना कार्य सिद्ध कर लेती है। बने हुए हैं उसीका परिणाम उनका मौजुदा सर्वतोमुखी ठीक उसी प्रकार जैनी नीतिका व्यवहार है । वह जिस पतन है, जिसने उनकी सारी विशेषताओं पर पानी फेरे समय अनेकान्तात्मक वस्तुके द्रव्य-पर्याय या सामान्य- कर उन्हे संसारकी दृष्टिमें नगण्य बना दिया है। विशेषादिरूप एक अन्तका-धर्म या अंशको-अपनी प्रस्तु; जैनियाका फिरस अनकान्तका स्मरण करातेहए ओर खींचती है- अपनाती है-उसी समय उसके उनमें अनेकांतकी प्राणप्रतिष्ठा कराने और संसारका दूसरे अन्त (धर्म या अंश) को ढीला कर देती है- अनेकान्तकी उपयोगिता बतलानेके लिये ही यह पत्र अर्थात् , उसके विषयमें उपेक्षा भाव धारण कर लेती अनकान्त नामसे निकाला जा रहा है । और इमलिये है । फिर दूसरं समय उस उपेक्षित अन्तको अपनाती इमे जैनी नीतिका द्योतक ममझना चाहिये । और पहलेसे अपनाए हुए अन्तके साथ उपेक्षाका व्यवहार करती है-एकको अपनाते हुए दूसरेका सर्वथा त्याग नहीं करती, उमे भी प्रकारान्तरसे ग्रहण किये रहती है। और इस तरह मुख्य-गौणकी व्यवस्थारूप निर्णय-क्रियाको सम्यक् मंचालित करके वस्तु
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy