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________________ होवे जिसे 'स्याद्वाद' भी कहत ह भी चकि आश्रमादिकका अनेकान्त [वर्ष १, किरण १ ३ पत्रका अवतार, रीति-नीति और योग्यताकी ज़रूरत है उसकी मैं अपने में बहुत बड़ी कमी देखता हूँ, मुझे अपनी त्रुटियोंका बोध है और सम्पादन इस लिये इस गुरुतर भारको उठाने के लिये मैं जबसे जैनहितैषी बन्द हुआ है तबसे जिनसमाजमें अपनेको असमर्थ समझता हूँ। मेरी असमर्थता और एक अच्छे साहित्यिक तथा ऐतिहासिक पत्रकी जरूरत भी बढ़ जाती है जब मैं देखता हूँ कि आश्रमक बराबर महसूस हो रही है, और सिद्धान्तविपयक पत्र अधिष्ठातत्वका भार भी मेरे ही कन्धों पर रक्खा की जरूरत तो उससे भी पहलेसे चली आती है । इन हा है और मुझे प्रबन्ध-सम्बन्धी छोटी बड़ी सब दोनों ज़रूरतोंको ध्यानमें रखते हुए, समन्तभद्राश्रमने चिन्ताओं में भाग लेना तथा दिन रात इधर उधर अपनी उद्देश्यसिद्धि और लोकहितकी साधनाके लिये दौड़ना पड़ता है-दूसरे किसी भी सजनने अभी सबसे पहले 'अनकान्त' नामक पत्रको निकालनेका तक आश्रमको अपनी सेवाएँ अर्पण करके मेरे इस महत्वपूर्ण कार्य अपने हाथमें लिया है और यह निश्चय बोझ को हलका नहीं किया है और न धनवानोंने किया है कि इस पत्रकी मुख्य विचारपद्धति अपने इतना धन ही दिया है जिसके बल पर योग्य व्यक्ति नामानकूल उस न्यायवाद (अनकान्तवाद )का अन वेतन पर रकग्वे जा सकें। ऐसी हालतमें मेरे सामने - जो कठिनाई उपस्थित है उस मैं ही जानता हूँ। फिर के आश्रमादिककी यह सारी योजना मेरी तहरीक और इस लिया इसमें सर्वथा एकान्तवादका निरपेक्ष नयवादको--अथवा किसी सम्प्रदायविशेषके अनचित - पर हुई है इसलिये दूसरे किसी योग्य व्यनि अथवा से पलपातका स्थान नहीं होगा, यह स्वाभाविक ही है। माथा क मिलने तक, उपायान्तर न होने .इसकी नोति सदा उदार और भाषा शिष्ट, सौम्य तथा इन दोनों भारोंको उठाने के लिये विवश होना पड़ा है। गंभीर रहेगी) मैं कहाँ तक इन्हें उठा सकूँगा, यह सब ममाजके महयोग पर उसमें संवा भावकी जागनि और उदारताक परन्तु पाठकोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उदय पर-अवलम्बित है। इस स्थितिमें, जिसे बदलत ऐसे महत्वपूर्ण तथा जिम्मेदारीके पत्रका सम्पादनमार कुछ देर नहीं लगती, यद्यपि पत्रका सम्पादन जैसा एक ऐसे शख्स के सिर पर रक्खा गया है जिसे न तो चाहिये वैसा नहीं हो सकेगा तो भी मैं इतना विश्वास किसी बड़े विद्यालयमें ऊँची शिक्षा मिली है और न कोई ज़रूर दिलाता हूँ कि, जहाँ तक मुझसे बन सकंगा, मैं डिगरी या उपाधि ही प्राप्त है । और जो अन्य प्रकार अपनी शक्ति और योग्यताके अनुसार पाठकोंकी सेवा से भी इस भारको भले प्रकार उठानके योग्य नहीं। करने और इस पत्र को उन्नन तथा मार्थक बनाने में यह ठीक है कि, मेरे द्वारा कुछ वर्षों तक जैनगजट कोई बात उठा नहीं रक्खूगा । आशा है मेरे इन संकल्पों और जैनहितैपी जैसे पत्रोंका संपादन होता रहा है। तथा विचारोंको पूरा करानेके लिए पाठक हर प्रकारसे परंतु एक तो इस बातको युग बीत गये है-जैन- मेरी मदद करेंगे, मुझे मेरी त्रुटियाँ बतलाते रहेंगे और हितैषीका संपादन छोड़े भी ९ वर्ष हो चुके हैं-उस इस बातकी पूरी कोशिश रखेंगे किअनेकान्तके विचार वक्त जो शक्ति थी वह आज अवशिष्ट नहीं है । अन- यथावत रूपमें अधिकसे अधिक जनताके पास पहुंचे भवकी वद्धि होने पर भी शरीरकी जीर्णताके कारण और उसे बराबर पढनेको मिलते रहें। ऐसा होने पर काम करनकी शक्ति दिन पर दिन कम होती जाती है। वह दिन भी दूर नहीं रहेगा जब कि जैनसमाजकी साथ ही, लोक-रुचि भी बहुत कुछ बदल गई है। मौजूदा स्थिति बदल जायगी, उसमें नवजीवनकासंचार दूसरे, उन पत्रोंके संपादन और इस पत्रके संपादनमें होगा और जैनधर्मका उसके असली रूपमें सबको बहुत बड़ा अन्तर है। इस पत्रके संपादनके लिये जिस दर्शन हुआ करेगा।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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