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मागशिर, वीरनि० सं० २४५६]
संपादकीय आममको एक प्रकार से अथवा उस दृष्टिसे जिससे से मिलता जुलता है जो दिगम्बर सम्प्रदायमें आमतौर बद्धको समन्तभद्र नाम दिया गया है-बुद्धाश्रम पर समन्तभद्रका समय माना जाता है। और इससे भी कहा जाय या समझा जाय तो इसमें कोई हानि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोंनोंकी गुर्वावलियों अथवा नहीं है।
पट्टावलियोंमें प्रसिद्ध समन्तभद्रका व्यक्तित्व बहुत करके तीसरे, जैनसमाज में स्वामी समन्तभद्र * नामके
एक ही जान पड़ता है । यदि एक न भी हो तो भी इस एक सुप्रसिद्ध सातिशय विद्वान आचार्य होगये हैं, जो एक बहुत बड़े लोक-सेवक थे और जिन्होंने जैनशासन नामकरणमें उससे कोई भेद नहीं आता। अस्तु, इन के उद्धार तथा प्रचारके कार्यमें असाधारण भाग लिया श्राचार्य महोदयके नामकी दृष्टिसे यह आश्रम समन्तहै। कनड़ी भापाके एक प्राचीन शिला लेखमें तो यहाँ भद्र स्वामीका श्राश्रम है-अर्थात् , एक प्रकारसे अपने तक लिखा मिलता है कि 'समन्तभद्रस्वामी श्रीवर्तमान महान उपकारी प्राचार्य महोदयका स्मारक है और महावीरके बाद उनके तीथकी सहस्रगुणी वृद्धि करतहुए हमें उनके मार्गका अनसरण करना अथवा उनके उदयको प्राप्त हुए। आप अनेकान्त अथवा स्याद्वाद के अनन्य उपासक तथा द्योतक थे और इसीलिये साम्प्र- आदशे पर चलनेकी याद दिलाता है। साथ ही, हमारी दायिक कट्टरता से रहित थे । दिगम्बर और श्वेताम्बर कृतज्ञताका भी एक सूचक है । इस तरह आश्रमका दोनों ही सम्प्रदायोंमें श्राप समानरूपसे पूज्य मानेजाते यह नामकरण अनेक दृष्टियोंको लिये हुए है-किसी है-कितने ही प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों ने अपने प्रन्थों एक ही दृष्टिका इसमें आग्रह नहीं है । जिन्हें जो दृष्टि' में बड़े गौरवके साथ आपके वाक्योंका प्रमाणमें उद्धृत ग्रहो वे इसे उस दृष्टिसे देखें। सर्व साधारण जनता किया है। इसके सिवाय,श्वेताम्बरों भी १७वें गमक रूपमें 'समन्तभद्र' नामके एक महान ।
इसे 'ममन्तानभद्र'नामकी पहली दृष्टिस देखे,अविभक्त आचार्यका उल्लेग्य पाया जाता है और उन्हें आगम
जैनसमाज इसको जिनेंद्राश्रम अथवा जैनाश्रमके रूपमें कथित शुद्ध नपश्चरणके अनुष्ठाता तथा पूर्वश्रुतकं पाठी अवलोकन करे और विभक्त जैनसमाजके उपासक इमे तक लिग्वा है । यथाः
अपनी अपनी गुर्वावलीमें कह हुए समन्तभद्राचार्यके अथा गुरुश्चन्द्रकुलेदुदेव
स्मारक रूपमें प्रहण करें, इसमें कुछ भी आपत्ति नहीं कुलादिवासोदितनिर्ममत्वः ।
है । इस नामकरणमें अनेकान्नका काफी आश्रय लिया समन्तभद्रः १७ श्रुतदिष्टशुद्ध- गया है और उस पर लक्ष रखते हुए यही नाम सबसे तपस्क्रियः पर्वगनश्रुतोऽभूत ॥२८॥ अच्छा जान पड़ा है। इसमें साम्प्रदायिकता का काई
-मुनि सुन्दरसरिः। खासभाव नहीं है । अतः जिन भाइयोंका ऐसा खयाल इसके बाद गुर्वावलीमें, “वृद्धस्ततोऽभूत् किल देव- हो उन्हें उसको अपने हृदयस निकाल देना चाहिये सरिः १८ शरच्छते विक्रमतः सपादे" वाक्य के द्वारा, और सबको मिलकर इस आश्रमको सफल बनानका देवरिका.उल्लेख करते हुए उनका समय वि०सं०१२५ दिया है और इस तरह पर समन्तभद्रका समय विक्रम
पूरा उद्योग करना चाहिये । यह संस्था अपने व्यवहार मं० १२५ तक सूचित किया है । यह समय उस समय
से जैनसमाजके सभी सम्प्रदायों को मिलान अथवा
.......उनमें प्रेम प्रतिष्ठित करके व्यावहारिक तथा सामूहिक ____ * इनका विशेष परिचय पानेके लिये 'स्वामी समन्तभद्र' नामक एकता स्थापित करनके लिये एक पलका काम करे, इतिहास दखना चाहिये।
ऐसा हृदयसे चाहा जाता है।