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पौष, वीर नि०सं०२४५६
हमारी शिक्षा
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बिगड़े हुए ढंग पर चली जारही है। वे देश, काल, शिक्षाका प्रश्न देशका प्रश्न है जाति, राष्ट्र संगठन, भारतोत्थान आदि विषयोंसे ऐसी अवस्थामें क्या किया जाय ? वास्तव में शिक्षा बिलकुल अनभज्ञि होते हैं । उनकी शिक्षा व्याकरणके का प्रश्न तमाम देश का प्रश्न है, इसे कोई एक जाति वितंडाओं में तथा न्यायके 'पात्राधारम् घृतम् वा घृता- कभी भी हल नहीं कर सकती। इस ओर देशके तमाम धारम पात्रम' जैसे प्रश्नों के हल करने ही में खतम हो हितचिंतकों को ध्यान देना चाहिये । और शीघ्र ही जाती है।"*
भारत सरकार की सहायतासे देश की शिक्षापद्धति में अब जरा अंग्रेजी शिक्षितों को भी देख लीजिए। उचित संशोधन और परिवर्तन कराना चाहिये । बिना वहाँ भी कोई विशेष प्राशाजनक चिन्ह नहीं दिखाई शिक्षापद्धतिके ठीक हुए देश का उत्थान असम्भव है । दते । वे बहुत कुछ जानते हुए भी अपने विषयोंके पूर्ण हमारी शिक्षा का आधार भारत की प्राचीन सभ्यता ज्ञाता नहीं होते । अधकचरी विद्या की प्राप्रि में ही पर होना चाहिये । और उसके द्वारा संसारके नवीन उनका स्वास्थ्य, शक्ति, दृष्टि, समय और धन लग और प्राचीन ज्ञानके दरवाजे उसके वास्ते खोल देन जाता है और फिर भी नतीजा अधिक उत्साहवर्धक चाहिएँ । देशके नवयुवकों को वही शिक्षा दी जाय नहीं। आज कलके विद्यार्थियों का उद्देश्य येन केन जिसके द्वारा उनके विचार और कल्पना शक्तिके प्रकारेण कोर्स को घोट-घाट कर परीक्षा पास कर लेना विकाश को पूरा अवसर मिले । अथवा जिससे वे होता है । और बहुत हद तक उनके शिक्षक और सुयोग्य नागरिक बन सकें, और उनके घरेलू जीवन प्रोफेसर भी इसी उद्देश्य को सामने रख कर कार्य करते तथा विद्यालय के जीवन का पूर्ण सम्मेलन हो। हैं । हम यह जानते हैं कि इसमें न तो बेचारे शिक्षकों
हम क्या करें ? का ही दोष है और न विद्यार्थियों का । बल्कि दोष है किन्तु यह बात एक दिनमें नहीं हो सकती । जब उस पद्धति का जिमके आधीन वे काम करते हैं। जब तक यह अवस्था देशमें कायम हो तब तक हम ठहर तक इस पद्धति में संशोधन न होगा तब तक इन भी नहीं सकते । फिर क्या किया जाय? ऐसीअवस्थामें कालेजोंमे ऐसे ही विद्वान निकलते रहेंगे जो बड़े बड़े हमें देशकी प्रचलित शिक्षा-पद्धति का ही आश्रय लेना सिद्धान्तो (Theories) को जानते हुए भी उनको पडेगा और साथमें अपनी आवश्यक्ताओं को पूर्ण रूप व्यवहार (Practice) में न ला सकेंगे। जो सदा से समझ कर उनकी पूर्ति के वास्ते शिक्षाके साधन अपनी आजीविका के वास्ते सरकारी दफतरों का जटाने होंगे। दरवाजा खटखटायेंगे। वर्तमान अवस्था में इनसे ऐमे हमारी आवश्यक्ताएँ जहाँ देश की अन्य जातियों विद्वान् निकलना जो बड़े बड़े अविष्कार कर सकें या के समान हैं वहाँ कुछ उनसे भिन्न और विशेष भी है। प्रचलित सिधान्तों का संशोधन या उनमें वृद्धि करसकें अतः सम्मिलित आवश्यक्ताओंको छोड़कर यहां विशेष बहुत कठिन हैं।
आवश्यक्ताओं पर ही संक्षेपमें विचार किया जाता है।
जैनधर्म भारतवर्षका पुराना धर्म है, उसका अपना .. देशदर्शन पृष्ठ २६६
विशाल साहित्य और संस्कृति (Culture) है । उस