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अनकान्त
वर्ष १, किरण २ बातको सुनते हैं कि जापानने ५० वर्ष में शिक्षा में वह पहले संस्कृतके पण्डितों की ओर ही एक दृष्टि उन्नति की कि तमाम संसार देखकर दंग रह गया; डाल लीजिए । ये महानुभावसमाजके उन विद्यालयों के उस समय हम जैन समाजको इस कीड़ी की चाल पर फल हैं जिन पर समाजने अपनी गाढ़ी कमाई का क्या बधाई दे सकते हैं ? वास्तव में जैन समाजनेदोचार रुपया दिल खोल कर इस श्राशासे लगाया था कि हाईस्कूल, पाँच चार विद्यालय, दम बारह बोरडिंग वहाँसे जैनधर्मके बड़े बड़े दिग्गज विद्वान निकलेंगे, जो हाउस और कुछ अनियमित पाठशालाएँ खोल देनेके जैनधर्म का प्रचार करेंगे और उसके साहित्य का अतिरिक्त और किया ही क्या है ? फिर शिक्षाकी उन्नति पनरुद्धार करेंगे। उन विद्यालयोंसे समाज को विशेष क्या आप ही आप हो जाती ? जब कि अन्य समाज लाभ नहीं हुआ। जैसी आशा थी वैसा फल न निकला। धड़ाधड़ कालेज, विश्व विद्यालय और गुरुकुला दि स्था- यह माना जा मकता है कि वहाँ से कुछ ऐसे विद्वान् पित करके शिक्षाके मैदानमें भागे जा रहे थे उस समय अवश्य निकल आये हैं जो कुछ ग्रन्थों का अनुवाद में और अब भी, हमें यह अत्यंत शोकके साथ कहना कर सकें या छोटी छोटी पाठशालाओं में शिक्षक का पड़ता है, पाश्चात्य ढंगकी उच्च शिक्षा का हमारे यहाँ कार्य कर सकें अथवा उपदेशक का कुछ काम करनेमें तीव्र विरोध था । अच्छा हो यदि ममाजके कर्णधार समर्थ हो । किन्तु इन विद्यालयोंसे समाज की अब भी अपनी भल को ठीक कर लें। श्रावश्यक्ताएँ पूरी न हुई, जिसका स्पष्ट प्रमाण यह है
हमारे शिक्षित कि वहाँ शिक्षा प्राप्तिके वास्ते अपने पुत्रों को बड़े हमारे यहाँ जो भी शिक्षित नाम धार्ग समुदाय है आदमी नहीं भेजते । सच बात तो यह है कि वहाँसे उसमें बहुलता ऐसे व्यक्तियोंकी है कि जिनका दकान- निकले हुए विद्वान् जहाँ अपनी आजीविका स्वतंत्र रूप दारीका हिसाब किताब रखनके अतिरिक्त कछ भी नहीं से प्राप्त करने में असमर्थ हैं वहाँ वे समाज को भी पाता । भले ही ये लांग पराने ढरेंकी दकानदारीचला पतितावस्था में रखनके उत्तरदाता हैं । वे संसार की लें किन्तु आगे इमस काम न चलेगा । इस प्रकार
गति को और देश तथा समाजकी वर्तमान कालकी के लिखे पढ़ों को न तो धार्मिक ग्रन्थोंका ही ज्ञान हो स्थितियों को समझने में भी असमर्थ हैं । देशदर्शन मकता है और न लोकिक बातांका। अतः हमारीसमझ नामक पुस्तकके लेखक ने संस्कृतके वर्तमान विद्वानोंके में तो इनको शिक्षितोंकी श्रेणी में बिठाकर शिक्षाका- सम्बंध में जो मर्मस्पर्शी शब्द कहे हैं वे हमारी समाज मरस्वतीदेवी का-घोर निरादर करना है। के बहुतसे पण्डितों पर सोलह आने लागू होते हैं। वे
जैन समाजके इन बहु संख्यक शिक्षितों (१) को लिखते हैं " हमारे देशके विद्यार्थी जब संस्कृत की उच्च अलग करदेने पर दोढंगके शिक्षित बाकी रह जाते हैं से उच्च परीक्षा पास करके निकलते हैं तो वे अपनी जिनकी संख्या तो अधिक नहीं है, पर जिनकी गणना रोटी तक कमाने में असमर्थ रहते हैं। उनकी शिक्षा न शिक्षित समाजमें होती है। इनमें प्रथम संस्कृतके लिखे तो उनको इस योग्य बनाती है कि वे अपना जीवन पढ़े पण्डित और दूसरे सरकारी स्कूलों तथा कालेजों निर्वाह भली भांति कर सकें और न वे अच्छे नागरिक से निकले हुए विद्वान हैं।
ही बन सकते हैं। उनकी शिक्षा अति प्राचीन कालके