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पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] धर्म और राजनीतिका सम्बन्ध
और उनकी देखभाल तथा नियंत्रण करनेके लिये हिन्दुओंके मान्य ग्रंथ महाभारतके अनुसार भी शासक नियुक्त किये।
___ मृष्टिके श्रादिमें मनुष्य विशेष सुखी और सन्तोषी में भोगभमि-कालमें मनुष्य संतोषी होते थे और उन और इसका कारण आवश्यकताओंकी की तथा की सम्पूणे आवश्यकताएँ कल्पवृक्षों के द्वारा पूर्ण हो श्रावश्यक वस्तुभोंका प्रभूत परिमाणमें उत्पन्न होना जाती थीं, अतः उन्हें दूसरोंकी वस्तुओं पर दृष्टि था-लोगोंको बस्तुभोंसे मोह नहीं था, इसीलिये उनमें दौड़ानेकी जरूरत ही न पड़ती थी। धीरे धीरे आवश्य- मंचय करनेकी चिन्ता भी नहीं थी। धीरे धीरे पैदावार कता पूर्तिमें कमी पड़नेके कारण उनमें अपराध करन- कम हो जानेसे मनध्याम वस्तुश्रीका मह उत्पन्न हमा की भी नवीन पादत प्राविर्भत हुई। और ज्यों ज्यों और वे संचय करनेमें तत्पर हो गये । जिसमे प्राकआवश्यकताओं की पर्तिमें कमी होती गई तथा तिक नियमोंकी श्रृंखला छिम-भिम हो गई । और नई आवश्यकताएँ बढ़ती गई त्यों त्यों अपरावों तब व्यवस्था करने के लिए दण्डविधान तथा राजसंस्था की संख्या भी बढ़ती गई, जिसके रोकनेके लिये की आवश्यकता पड़ी। . दण्डविधानकी आवश्यकता हुई। प्रथम पाँच कुलकरों बौद्धप्रंथ 'दीघनिकाय' में तो इसका बड़ाही के समयमें अपराधीको केवल "ET" ऐसा कह कर मनोरंजक वर्णन मिलता है, जिस का संक्षिा प्राशय दण्ड दिया जाता था, जिसका प्राशय है-'हाय! बरा इस प्रकार है :किया।' इसके पश्चात् पाँच कुलकरोंके समयमें 1 सृष्टिके आदि में मनष्य सुखी और सन्नोषी थे, -मा" इन दो शब्दोंमें दण्डव्यवस्था रही, जिस- जिसे जब भोजन की आवश्यकता होती थी घर से का आशय है- 'हाय ! बुरा किया, अब ऐसा न बाहिर जाता था और अपने कुटुम्बके एक बार भोजन करना ।' अवशेष कुलकरोंके समयमें "हा-मा- करने के योग्य चावल ले आता था; क्योंकि चावल धिक" इन तीन शब्दोंसे दण्डव्यवस्था होती थी, यथेष्ट परिमाणमें उत्पन्न होता था। पर यह व्यवस्था जिसका आशय है-'हाय! बुरा किया-फिरसे ऐसा देर तक कायम न रही-कुछ पालसी मनुष्योंने सोचा न करना-तुझे धिकार है। इस तरह ज्यों ज्यों मन- कि हम प्रातःकाल के लिये प्रातःकाल और सायंकालके ज्योंका नैतिक पतन होता गया त्यों त्यों दण्डकी कठो• लिये सायंकाय चावल लेने जाते हैं इसमें दो पार कष्ट रता भी बढ़ती गई। भगवान् श्रीऋषभदेव के दीक्षा उठाना पड़ता है। यदि दोनों समयकं लिये एक बार ग्रहण करनेके पश्चात उनके पुत्र भरत चक्रवती सिंहा- ही चावल ले आया करें तो बहुत सहूलियत (सुगमता) सन पर बैठे । उस समय मनुष्य अधिक अपगध तथा होगी। उन्होंने यही किया। जब दूसरे मनुष्यों को यह अन्याय करने लगे थे, इस लिये महाराज भरतने अपराधियोंको कारागारमें रखने तथा उनका वध करने ।
बात मालूम हुई तो उन्होंने कहा-यह तो बहुत ठीक आदिरूप शारीरिक दंड देनकी प्रणाली प्रचलित की है ओर वे तब दो दिन के योग्य पावल उठा लाये । * शारीरं दण्डनं चैव वधबंधादिलक्षणम।
- इस प्रकार जिन जिन मनुष्यों को यह बात मालूम होती नृणां प्रबलदोषाणां भरतेन नियोजितम् ॥२१६॥ गई उन सबने चावल जमा करना प्रारम्भ कर दिया।
-प्रापिपुराण पर्ष । सागंश यह है कि मनुष्योंमें मन्तोष न रहा, उसका