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________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण २ (१) विद्यानन्दकी कृतिरूपसे जो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं उन . कथाकोशवणित पात्रकेसरीकी कथामें भी यह में में किमीका भी उल्लंग्व पात्रकेमरीक नामक माथ श्नांक दिया है और बहुतमे न्याय-सिद्धान्तादि-विषयक प्राचीन साहित्यमें नहीं पाया जाता और न पात्रकेमरी ग्रन्थों में यह उद्धत पाया जाता है । इस श्लोककी भी की कृतिरूपम प्रसिद्ध होनेवाले ग्रंथांका उल्लेख विद्या- पात्रकेमरीके नामक साथ खास प्रमिद्धि है और यही नन्दके नामके साथ ही पाया जाता है । यह दृमर्ग श्रापकं 'त्रिलक्षणकदर्थन' ग्रन्थका मूल मन्त्र जान बात है कि आज कलके कुछ प्रकाशक अथवा पड़ता है। संशोधक महाशय दानोंकी एकनाके भ्रमवश एकका यहाँ, पाठकोंको यह जान कर आश्चर्य होगा कि नाम दृमरेके माथ जोड़ देवें । अम्तु; पात्रकमरीकी प्रेमीजी अपने उक्त लग्बमें इम ग्रंथकी मत्ताम ही कृतिरूपसे सिर्फ दो ग्रंथोंका उल्लेख मिलता है- इनकार करते हैं और लिम्बत हैं कि "वास्तवमें 'त्रिलएकजिनेंद्रगणमस्तुति' का जिम 'पात्रकेमरिम्तात्र' भी णकदर्थन' कोई ग्रन्थ नहीं है । पद्मावतीने 'अन्यथानकहते हैं और जो छप चका है, और दमग 'विलक्षण- पपन्नत्वं' आदि शाक लिख कर पात्रकेमरीके जिम कदर्थन' का, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हश्रा । इस अनुमानादि विलक्षणांके भ्रमको निराकरण किया था, 'विलक्षणकदर्थन के साथ ही पात्रकेमरीकी ग्वाम प्रमिद्धि उमीका यहाँ (मल्लिपंग्णप्रशम्तिमें ) उद्देश्य है।" परंतु है। बौद्धों द्वारा प्रतिपादित अनुमान विपयक हतुकं आपका यह निग्यना ठीक नहीं है, क्योंकि यह ग्रन्थ त्रिरूपात्मक लक्षणका विस्तार के माथ खंडन करना ११वीं शताब्दीके विद्वान वादिगजमरि जैसे प्राचीन ही इम ग्रंथका अभिप्रेत है। श्रवणबल्गाल के मल्लि- आचायों के मामन मौजद था और उन्होंने न्यायविपेणप्रशम्ति नामक शिलालेग्य (न०५४) में, जो कि शक निश्चयालंकार' में पात्रकमर्गक नामके माथ उमका मं० १०५० का लिग्या हुआ है, 'विलक्षणकदर्थन 'के स्पष्ट उल्लेख किया है और अमुक कथनका उममें उल्लेखपूर्वक ही पात्रकेसरीकी स्तुति की गई है । यथाः- विस्तारक माथ प्रतिपादन होना बतलाकर उसके देखने महिमासपात्रकेसरिगर्गः परंभवति यस्य भक्तयासीन की प्रेरणा की है । जमा कि उनके निम्न वाक्य से पद्मावती सहाया त्रिलक्षण-कदर्थनं कतम् ॥ प्रकट है : इममें बनलाया है कि उन 'पात्रकेमरी गमका “त्रिलक्षणकदथने वा शास्त्रे विस्तरेण श्रीबड़ा माहात्म्य है जिनकी भक्तिके वश होकर पद्मावती पात्रकसरिस्वामिना प्रतिपादनादित्यलमभिनिदेवीने विलक्षणकदर्थन' की कृतिमें उनकी सहायता वशेन । ' की थी' । कहा जाता है कि पद्मावती प्रसादसे आपको (५) वादिगजरिने, 'न्यायविनिश्चयालंकार' नामक नीचे लिखे श्लोककी प्राप्ति हुई थी और उसको पाकरही अपने भाष्यमें 'अन्यथानुपपन्नत्वं' नामके उक्त श्लोकको आप बौद्धोंके अनुमानविषयक हेतुलक्षणका खंडन नीचे लिखे वाक्यके साथ उद्धृत किया है :करनेके लिये समर्थ हुए थे: ____“तदेवं पतधर्मत्वादिमन्तरेणाप्यन्यथानुअन्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । पपत्तिवलेन हेतोर्गमकत्वं तत्र तत्र स्थाने प्रतिपायनान्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ भेदं स्वबुद्धिपरिकल्पितमपि तपरागमसिद्धमि
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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