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________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] . सम्पादकीय ३२३ होता न देखकर उनके पिता एक विशिष्ट इलाजके लिये करते थे। पिछले दिनों समन्तभद्राश्रम को भी आपने उन्हें देहली में ही मेरे पास ले आए, लाते समय रास्ते २१) रु० भेजे थे । और पंडित जी पके सुधारक थे, में जहाँ रेल बदलती थी तबीयत ज्यादा खराब हो गई, निर्भयप्रकृति थे, व्याख्याता थे तथा साथ ही लेखक मरसाम पड़ गया और इसलिये वे १७ अप्रेलको सुबह भी थे । कुछ अर्सेसे आप 'वीर' का प्रकाशनकार्य भी यहाँ बेहोशीकी बड़ी नाजुक हालतमें ही पहुँच पाए। करते थे और उसे करते हुए जहाँ तहाँ सभा मोसाइसब कुछ इलाज, जो बन सकता था, किया गया, अ- टियोंमें उपदेशके लिये भी पहुँच जाया करते थे । वीरगले दिन दो घंटे के लिये होश भी आगया परन्तु आ- सेवक-संघके आप सदस्य थे और कुछ असें के लिये खिर २० अप्रेल सन् १९३० को ११ बजे दिनके आपका आपने आश्रममें आकर मेवाकार्य करनेका भी वचन प्राण पखेरू इस नश्वर शरीरसे उड गया !! और आप दिया था परन्तु किसी कारणवश अभी पा नहीं सके ढाई वर्षके करीब बीमार रह कर २८ वर्षकी इस युवा- थे । अन्त को इलाज कराने के लिये श्राप देहली आए वस्थामें ही सारे कुटम्बी जनोंको दुःख सागरमें बिल- और एक महीने के करीब आश्रम में ही ठहरे । जब विलात छोड़कर स्वर्धामको सिधार गये !!! आप अपने इलाजसे कुछ फायदा न देखा तब मेरठ वापिस चले पिताके एक ही पत्र थे और इधर बहन जयवन्ती भी गये और वहाँ जाकर आठ दस दिन बाद ही ता०१९ अपने पिताकी एक ही पुत्री है, इसमें आपके इस मई सन् १९३० को गतके १०॥ बजे आप अपनी यह दुःमह वियोगसे दोनों ओर दारुण दुःख छा गया है !! सब लीला समाप्त करके परलोकवासी होगये !!! वकील सबों की आशालताओं पर तुषार ही नहीं पड़ा किन्तु साहबका भी देहावसान आपके बाद मई मासमें ही ता० वनका प्रहार हो गया है !!! ममझमें नहीं आता कि २४ को दिनके १२ बजे हुआ है !! इन दोनों सजनोंके किमीको कैसे सान्त्वना दी जाय ! संसार के स्वरूपका वियोगम निःसन्देह समाजको बड़ी हानि पहुँची है। चिन्तवन और सद्धर्मका एक शरण ही सबोंको शांति दोनों कुटीजनों तथा मित्रोंके इम दुःग्व में मेरी हा. तथा धैर्य प्रदान करे। दिक महानभति है। श्रीजिनधर्मके प्रमादम उन्हें धैर्य तथा शान्तिकी प्रानिहाय |श्रात्माएँ फिर ३ दो चमकते हुए तारों का प्रस्त में भारतमें जन्म लेकर नये शरीर, नये बल और नये ममाज-गगन पर कुछ अर्मेमे दो नारं चमक रहे उन्माहके साथ अपने मद्विचाराको कार्य में परिणन करें। थे, उनका उदय समाजकं लिये बड़ा ही शुभरूप हुआ एक और वियोग था, लोग उन्हें देख कर प्रसन्न होते थे, उनसे स्फनि ग्रहण करते तथा शक्ति प्राप्त करते थे और वे भी अप- दुःख के माथ लिम्वना पड़ता है कि देहलीके सुप्रनी चमक, अपन तंज एवं अपनी सेवाओं से लोगोंका सिद्ध जैन रईम गय बहादुर ला सुलतानसिंहजी का मन मुग्ध किये हुए थे । परंतु आज यह देखकर दु.व भी ना०३ जन मन १९३० को, ५२ वर्षकी अवस्थामें, होता है कि उनका एकाएक अम्न हो गया है !' इनमें म्वगवाम हा गया है !!! आप ममाजके एक प्रतिष्ठित (१) एक थे मेरठ सदरके पं० वृजवासीलालजी और व्यक्ति थे, बड़ी धाग सभाके कई बार मदम्य रह चक (२) दुमरे थे मेरठ शहरके बाब ऋषभदासजी वकील। हैं और कई बार आपनं मपत्नीक विदेश-यात्रा भी की वकील साहब बराबर हिन्दी तथा उर्दूकं पत्रों में लिखा थी। आपके वियोगस समाजकी भारी क्षति हुई हैकरने थे, सभा-सोसाइटियों में खासा भाग लेते थे दहली जैनसमाज का ना एक स्तंभ ही गिर गया है ! और जैन समाजके सुधार तथा उत्थानका ही मदा इस वियोगजनिन दुःखमें आपके कुटुम्बियों नथा मित्रों ध्यान रखते थे। समय-समय पर आप अपनी उदारता के प्रति मरी हार्दिक सहानुभूति है। में कुछ संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी प्रदान किया -
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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