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वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] जैनधर्मका अहिंसातत्त्व
मा. अर्थात्, प्राणियों के प्राणका वियोग करनेके सबको अप्रिय है, जीवन सभीको प्रिय लगता है-सभी लिए अथवा प्राणीको दुःख देनेके लिये जो प्रयत्न या जीनेकी इच्छा रखते हैं। इसलिए किसीको मारना या 'क्रया की जाती है, उसका नाम हिंसा है। इसके विपरीत कष्ट न देना चाहिए। किमी भी जीव को दुःख या कष्ट न पहुँचाना अहिंसा अहिंसाके भाचरणकी आवश्यकताके लिए इसमें है। पातंजलि-योगसूत्रके भाष्यकार महर्षि व्यासनं बढ़कर और कोई दलील नहीं है और कोई दलील हो 'अहिंसा'का लक्षण यह दिया है-'सर्वथा सर्वदा सर्व- भी नहीं सकती। परन्तु यहाँपर एक प्रश्न यह उपस्थित भनानापनविद्रोहपहिसा' अर्थात सब तरहसे, सब होता है कि, इस प्रकारकी अहिंसाका पालन सभी ममयोंमें, सभी प्राणियोंके माथ श्रद्रोह भाव बर्तने- मनुष्य किस तरह कर सकते हैं। क्योंकि जैमा कि प्रेमभाव रखने का नाम अहिंसा है। इसी अर्थको शास्त्रों में कहा हैविशेष स्पष्ट करने के लिए ईश्वर-गीतामें लिखा है कि- जले जीवाः म्थले जीवा जीवाः पर्वतमस्तके । कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। ज्यालमालाकुले जीवाः सर्व जीवमयं जगत् ॥ भवेशनननं पोक्ता अहिंसा परमर्षिभिः॥ अर्थान्-जलमें, स्थलमै, पर्वतमें, अग्निमें इत्यादि
अर्थान्-मन, वचन और कर्मसे सर्वदा किसी भी सब जगह जीव भरे हुए हैं-साग जगत जीवमय है। प्राणीको क्लेशनहीं पहुँचानेका नाम महर्षियोंने 'अहिंसा' इसलिए मनुन्यके प्रत्येक व्यवहारमें-खानेमें, पीनेमें, कहा है । इस प्रकारकी अहिंसाके पालनकी क्या आव- चलनेमें,बैठनमें, व्यापारमें, विहार में इत्यादि सब प्रकाध्यकता है, इसके लिए प्राचार्य हेमचन्द्रने कहा है कि- रके व्यवहारमें-जीवहिंसा होती है । बिना हिंसाके कोई
आत्मवत् सर्वभूतेष सुखदुःखे प्रियापिये। प्रवृत्ति नहीं की जा मकनी । अतः इस प्रकारको सम्पूर्ण चिन्तयमात्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत ॥ अहिंसाके पालन करनेका अर्थ तो यही हो सकता है
अथोन-जैसे अपनी आत्माको सख प्रिय और कि मनुष्य अपनी सभी जीवन-क्रियाओंको बनकर, दुःख अप्रिय लगता है, वैसे ही मब प्राणियों को लगता योगीके समान ममाधिस्थ हो, इस नरदेहका बलान है । इसलिए जब हम अपनी आत्माके लिए हिंसाको नाश कर दे। ऐमा न करके, अहिंसाका भी पालन अनिष्ट समझते हैं, तब हमें अन्य आत्माओं के प्रति भी करना और जीवन को भी बचाये रखना, यह पाकाशउम हिमाका आचरण कभी नहीं करना चाहिए । यही कुसुमकी गन्धकी अभिलाषा के ममान हो निर. बाने स्वयं श्रमण-भगवान श्रीमहावीर-द्वाग इस प्रकार धक और निर्विचार है। अतः पर्ण अहिमा कंवा में कही गई है
विचारका ही विषय हो मकनी है, प्राचारका नहीं । "मने पाणा पिया उया, सहसाया, दुर- यह प्रश्न अस्छा है औररासका ममाधान अहिंसा पडिकूला, अप्पिय वहा, पियनीविणों, जीवि. के भेद और अधिकारीका निरूपण कग्नम हो जायगा। उकामा । (नमा) णानिवाएज किंचणं" इमलिए प्रथम अहिंसाके भेद बतलाये जाते हैं । जैन.
अर्थात्-मब प्राणियोंको श्रायुप्य प्रिय है, मय शामकानि अहिंसाके अनेक प्रकार बननाये हैं; जैसे मुखके अभिलाषी हैं, दुःख मबको प्रतिकूल है, वध पल अहिमा और सम्म अहिमा; ठम्य अहिमा और