SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ एक दलील यह भी है कि विद्यानन्दि यदि गृद्धपिच्छ विचारसे सहमत न हो अथवा सहमत होते हुए और उमास्वामी को अभिन्न ही समझते होते तो एक उस पर कुछ विशेष प्रकाश डाल सके उन्हें जगह उमाम्वामी और दूसरी जगह 'गद्धपिच्छ आचार्य' सहर्प आमंत्रण है कि वे अपने युक्तिपुरम्सर इतना विशेषण ही उनके लिये प्रयुक्त न करते बल्कि 'गद्धपिच्छ' के बाद वे 'उमास्वामी' शब्द का प्रयोग विचारों को शीघ्र ही 'अनेकान्त' के पाठकों के करते । उक्त दोनों कथनों की मेरी विचारणा यदि सामने रखने की कृपा करें । परन्तु इस सम्बंध खोटी न हो तो उसके अनुसार यह फलित होता है में लिखा हुआ कोई भी लेख-अनकूल हो कि विद्यानन्दि की दृष्टि में उमास्वामी तत्त्वार्थाधिगम या प्रतिकूल-किसी प्रकार के लोभ, कोप या शास्रके प्रणेता होंगे परंतु उनकी दृष्टि में गृद्धपिच्छ और साम्प्रदायिक करता के प्रदर्शन को लिये हए उमाम्वामी ये दोनों निश्चयसे जद ही होने चाहिये। न होना चाहिये, उस का उद्देश्य मात्र सत्य गद्धपिच्छ, बलाकपिच्छ, मयुरपिच्छ वगैरह विशे की खोज तथा सत्य के निर्णय में सहायता पणों की सष्टि नग्नत्वमूलक वस्त्रपात्रके त्यागवाली दिगम्बर भावनामें से हुई है। यदि विद्यानन्दि उमा- पहुँचाना होना चाहये । और इस लिये वह स्वामी को निश्चयपूर्वक दिगम्बरीय समझत होते तो वे सौम्य भाषामें ऐतिहासिक दृष्टि की प्रधानताको उनके नामके साथ पिछले जमानमें लगाये जाने वाले लेकर ही लिखा जाना चाहिये । गद्धपिच्छ आदि विशेपण ज़रूर लगाते । इससे ऐसा जो दिगम्बर विद्वान इस के विरुद्ध कहना पड़ता है कि विद्यानन्दिन उमास्वामी का श्वता- विचार रखते हों और खद कोडे लेख लिखना म्बर, दिगम्बर या कोई तीसग सम्प्रदाय मचित ही न चाहें उन्हें चाहिये कि वे इस लेख की जिम नहीं किया। जिस बात के विरोधमें जितनी भी सामग्री जुटा नोट सकते हों उसे प्रयत्न करके जटाएँ और जटा यह लेख, लेखक महोदयके विशाल तथा कर उन पंक्तियों के लेखक के पास भेजने की गहरे अध्ययनको सूचित करता हुआ. विद्वानों कृपा करें, जिससे जो विस्तृत लेख लिखा जाने के सामने विचारकी बहुतसी महत्वपूर्ण सामग्री को है उसमें उसका सदुपयोग हो सके और प्रस्तत करता है और उन्हें सविशेषरूपमे सन्यके मत्यक निर्णय में यथेष्ट सहायता मिल सके । अनसंधान तथा यथार्थताके निर्णय की प्रेरणा यह विषय अब अच्छी तरहसे निर्णीत ही हो करता है । इसके लिये लेखक महोदय धन्यवादके जाना चाहिये । और इसलिये हर एक विद्वान् पात्र हैं। मेरी इच्छा इस पर कुछ विस्तारके साथ को अपना कर्तव्य समझ कर इसमें योग देना लिखनेकी है परन्तु इस समय न तो मुझे अवकाश चाहिये । इस विषयमें पत्र-व्यवहार करने वाले ही है और न यथेष्ट साधन-सामग्री ही मेरे सामने सज्जन साधन-सामग्रीके सम्बंधमें कितनी ही उपमौजद है। अतः बादको इसका प्रयत्न किया योगी सचनाएँ प्राप्त कर सकेंगे। -सम्पादक जायगा । हाँ, जो विद्वान् इस लेखके किसी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy