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________________ ४०७ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं०२४५६] तस्वार्थसत्रके प्रणेता उमास्वाति प्राचार्य तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता हैं । यहाँ तत्वार्थसूत्र का व्यभिचार का विषय भतरूपसे कल्पित किया गया अर्थ यदि तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र किया जाय तो यह सत्र जुदा ही है, इसीसे उन्होंने इस व्यभिचार दोषको फलित अर्थ दूषित ठहरता है । क्योंकि तत्त्वार्थाधिगम- निवारण करनेके बाद हेतुमें प्रसिद्धता दोष को दूर शास्त्र अकेले उमास्वामीका रचा हुआ माना जाता है,न करते हुए "प्रतसत्रे" ऐसा कहा है । प्रकृत अर्थात् कि उमास्वामीआदिअनेक आचार्योंका। इससे विशेपण- जिस की चर्चा प्रस्तुत है वह उमास्वामीका मोक्षमार्गगत तत्त्वार्थसत्र पदका अर्थ मात्र तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र विषयक सत्र । प्रसिद्धता दोप का निवारण करते हुए न करके जिनकथित तत्त्वप्रतिपादक सभी ग्रन्थ इतना सत्र को 'प्रकृत' ऐसा विशेषण दिया है और व्यभिचार करना चाहिये । इस अर्थ के करते हुए फलित यह दोपको दूर करते हए वह विशेषण नहीं दिया तथा पक्ष होना है कि जिनकथित तत्त्वप्रतिपादक ग्रन्थके रचनं रूप मत्रके अन्दर व्यभिचार नहीं आता यह भी नहीं वाले उमास्वामी वगैरह आचार्य । इस फलित अर्थ के कहा । उलटा स्पष्टरूपसे यह कहा है कि गद्धपिच्छाचाअनसार सीधे तौर पर इतना ही कह सकते हैं कि र्यपर्यन्त मुनियोंके सत्रोंमें (?) व्यभिचार नहीं पाता। विधानंदि की दृष्टिमें उमाम्वामी भी जिनकथित तत्त्व- यह सब निर्विवाद रूपसे यही सूचित करता है कि प्रतिपादक किसी भी गन्थके प्रणेता हैं । यह गन्थ भले विद्यानन्दि उमाम्वामीसे गद्धपिच्छ को जदाही समझते ही विद्यानंदिकी दृष्टि में तत्त्वार्थाधिगमशास्त्र ही हो हैं, दोनों को एक नहीं है। इसी अभिप्राय की पुष्टिमें परंतु इसका यह आशय उक्त कथनमें दूसरे आधागे के बिना सीधे तौर पर नहीं निकलना । इममे विदा लगक महोदय की यह विचारगा ठीक नही है, क्योंकि नंदिके आप्तपरीक्षागत पर्वोक्त कथन पर हम इसका लोकवार्तिक की मुद्रित प्रतिमें "व्यभिचारिता निरस्ता" के प्राशय सीधी रीतिसे इतना ही निकाल सकते हैं कि बाद जो पूर्ण विराम का चिन्ह (।) छपा है वह मशुद्ध है-हातउमास्वामीन जैनतत्वके उपर कोई ग्रंथ अवश्यरचा। लिखित प्रतियों में वह नहीं देखा जाता। इससे अगला 'प्रकृतम पर्वाक्त दूसरा कथन तत्त्वार्थाधिगमशास्त्रका पहला पद पूर्व वाक्यक माय ती गम्बद्र है और प्रग वाक्य "पतेन ग. माक्षमार्ग-विषयक सत्र मर्वजवीतराग-प्रणीत है इस पिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसत्रेण व्यभिचारिता नि. यस्तु को सिद्ध करने वाली अनमानचर्चा में आया है। रस्ता प्रकृमस" या होता है । नी हालतमें, खुद लेग्यक महोदय की भी मृचनानुमार, किनी आपनि अथवा विंगवी विचारक इस अनुमानचर्चामें मातमार्ग-विषयक मत्र पक्ष है. लिये कोई स्थान नहीं रहता । अगला वाक्य "मत्रत्वमसिद्धामति मर्वज्ञवीतराग-प्रणीत्व यह माध्य है और मत्रत्व यह . चेन" इन सांग पारम्भ होता है, उसके शुरूगं "प्रकृतसत्रे" हंन है। इस हेतुम व्यभिचार दोपका निरसन करने की कार्ड म्याग जात न:- बिना उसक भी कम चन जान हए विद्यानन्दिन तन' इत्यादि कथन किया है। व्य- है। और यदि कल जान गमभी भी जाय ना मध्यमं पर। भिचार दोप पक्षम भिन्न स्थल में मंभवित होता है। प्रकृतमत्रे' पदको दर नीतीप-गाय' में उभयप्रकाशक एव दानां पन्न ना मोक्षमार्ग-विषयक प्रस्तुत नत्वार्थमृत्र ही है इम का क. गाधक समझना चाहिये । इसके गिवाय, प्रकग्गा तथा टिग. मं व्यभिचार का विषयभूत माना जाने वाला गद्धपि- स्वर सम्प्रदाय में गृपिच्छाचार्य की इस नन्वार्थमृत्रक कन्निविष. च्छाचार्य पर्यंत मुनियों का सूत्र यह विद्यानन्दि की एक प्रसिद्धि को देग्नने हुए. गृपिच्छाचार्थके बाद 'पर्यन्न' शब्द दृष्टि में उमास्वातिके पक्षभूत मोक्षमार्ग-विषयक प्रथम क प्रयागंम यह माफ ध्वनित होना है कि विचारमें प्रग्न्त प्रकृत मन्त्र मत्रसे भिन्न ही होना चाहिये, यह बात न्यायविद्या का कर्ता ही वहां गृदपिन्छाचार्यकम्पमें विवक्षित है, मग और कोई अभ्यासीको शायद ही समझानी पड़े ऐसी है। विद्या- नहीं । गृद्धपिच्छाचार्य नाम का दमा कोई सूत्रकार हुमा भी नहीं । नन्दि की दृष्टिमें पक्षम्प उमाम्बातिके मत्र की अपेक्षा अतः जो नतीजा निकाला गया है वह ठीक नहीं है -संपादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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