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________________ अनेकान्त वर्ष १, किरण ६. २ पूज्यपाद का समय विक्रमकी छठी शताब्दी है के कर्ता रूपसे उमास्वाति का उल्लेख किया है-नांकइसका विशेष जानने के लिये 'स्वामी समन्तभद्र' के वार्तिक में उनका द्वितीय नाम गद्धपिच्छाचार्य दिया है पृ० १४१ से १४३ तक देखिये । तत्त्वार्थके श्वेताम्बरीय और शायद आप्तपरीक्षा टीका आदि में 'उमास्वानि' भाष्यको मैं अभी तक म्वोपज्ञ नहीं समझता हूँ । उस नामका भी उल्लेख है।। पर कितना ही मंदेह है, जिस सबका उल्लेव करने के इस तरह पर यह आपके दोनों पत्रों का उत्तर है. लिये मैं इस समय तय्यार नहीं हूँ। जो इस समय बन सका है। विशेष विचार फिर किसी ६ दिगम्बरीय परम्पगमें मुनियोंकी कोई उच्च नागर ममय किया जायगा।" शाग्वा भी हुई है, इसका मुझे अभी तक कुछ पता नहीं मेरी विचारणा है और न 'वाचकवंश' या 'वाचकपद' धारी मुनियों का ही कोई विशेष हाल मालम है। हाँ, इतना स्मरण विक्रम की ९ वीं शताब्दी के दिगम्बराचार्य विद्याहोता है कि किमी दिगम्बर गन्थ में उमाम्वातिके साथ नंदिन आपपरीक्षा (श्लो० ११९) की स्वोपज्ञवृत्तिम 'वाचक' शब्द भी लगा हुआ है। "तत्त्वार्थपत्रकारैम्माम्बामिप्रतिभिः" * ऐमा __ कुन्दकुन्द और उमाम्वानिके संबंधका उल्लंग्व कथन किया है और तत्त्वार्थ-शोकवार्तिककी स्वोपतनं. २ में किया जा चुका है । मैं अभी तक उमास्वाति वृत्ति (१०६-०३१) में इन्हीं आचार्य ने "एनेन को कुन्दकुन्दका निकटान्वयी मानता हूँ-शिष्य नहीं। गढपिन्छाचार्यपर्यन्तमुनिमात्रेण व्यभिचारिता हो सकता है कि वे कुन्दकुन्दके प्रशिष्य रहे हों और निरस्ता" ऐसा कथन किया है । ये दोनों कथन नइसका उल्लेव मैंने 'स्वामी समन्तभद्र' में पृ०१५८, १५९ पर भी किया है। उक्त इतिहास में उमाम्वाति-समय स्वार्थशाम्म्रके उमास्वातिचिन होनेको और उमास्वाति और 'कुन्दकुन्द-समय' नामक के दोनों लग्यों को एक तथा गद्धपिच्छ आचार्य दोनोंके अभिन्न होनेको मचिन बार पढ़ जाना चाहिये। करते हैं ऐसी पं० जगलकिशोरजी की मान्यता जान ___ ५ विक्रम की १० वीं शताब्दी में पहले का कोई पड़ती है। परंतु यह मान्यता विचारणीय है, इसम उल्लेग्य मेरे दग्वनेमें ऐमा नहीं आया जिसमें उमाम्बानि इस विषय में मेरी विचारणा क्या है उसे संक्षेप में को कुन्दकुन्दका शिष्य लिया हो। बतला दना योग्य होगा। "नवार्थसत्रको गद्धपिन्टोपलक्षिनम" पहले कथन में 'तत्त्वार्थसत्रकार' यह उमास्वामी इत्यादि पदा नत्वार्थमत्र की बहुनमी प्रनिगोंके अंतमें वगैरह आचार्यों का विशेषण है, न कि मात्र उमादेग्या जाता है, परन्तु वह कहाँ का है और कितना म्वामीका । अब यदि मुख्तार जी के कथनानुसार अथ पगना है यह अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। कीजिये तो ऐसा फलिन होता है कि उमास्वामी वगैरह ७ पज्यपाद और अकलंकदेवके विपयमें तो अभी पम पजाबगय नामक एक विद्वान की लिखी हुई ठीक नहीं कह सकता परन्तु विद्यानंदिन तो तत्वार्थसूत्र यापपरीक्षा-टीकाकी जा प्रति है उसमें ये "तत्वार्थसत्रकारैरु. जिनेन्द्रकन्यागाभ्युदय' ग्रंथमें 'अत्वयावन्ति' का वर्णन भास्वामिप्रभतिभिः" शब्द नहीं हैं, और देहलीके नये मन्दिर करते हए कुन्दकुन्द और उमास्वाति दोनांके लिये 'वाचक' पद का की जो पुगनी दो प्रतियां-एक मं०१८:१ की और दसरी म. प्रयोग किया गया है, जैसा कि उसके निन्न पद्य प्रकट है: - १४ की लिखी हुई–हाल में देवी गई उनमें भी ये शब्द नहीं पुष्पोदन्तो भूतवलिः जिनचंद्रो मुनिः पुनः। हैं। इससे मुद्रित प्रतिके ये शब्द प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं और इसी कुन्दकुन्दमुनीन्द्रोमास्वातिवाचकसंज्ञितौ ॥ लिये मेरे पत्र में इन पर कोई खास जोर नहीं दिया गया था। -सम्पादक -सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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