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सुभाषित मणियां
वैशास्त्र, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६ ]
संस्कृत-
जीवितान्तु पराधीनाज्जीवानां मरणं वरम् । -वादीभसिंहसूरि ।
'पराधीन जीवनसे जीवोंका मरण अच्छा हैसुनामी मौत भली है।' मा जीवन्यः परावज्ञादुःखदग्धोऽपि जीवनि । नम्यान निवास्तु जननी क्रेशकारिणः ||
-माघ ।
"उसके जीवन को धिक्कार है जो दूसरोंके द्वारा पमानित हुआ दुःखके साथ जीवन व्यतीत करता है।
अपमानित जीवन व्यतीत करने वालोंका जन्म न होना ही अच्छा है । वे अपने जन्म मे व्यर्थ ही जननी (माना ) को क्लेश पहुँचाते हैं।' मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं विनी
केन कानने ? - वादीभसिंह सूरि |
'वन में मगेन्द्रको मृगेन्द्रता - स्वाधीनता - किसने अर्पण की ? किसीने भी नहीं ।'
[ इसमें मालुम होता है कि स्वाधीनता कभी किसी की उपहार में नहीं मिलती. वह स्वयं अपने बलके साधार पर प्राप्त की जाती है और तभी टिकती है। ] मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमन्तियोः
'मनुष्यांका मन ही उनके बन्ध-मोनका - उनकी पराधीनता-स्वाधीनता एवं दुःख सुखका कारण है।"
[मन जब निर्बल होता है, अपने विवेक को म्यां पेंटता है तो यह खुद ही अपने विचारोंसे भयादिकं संचारद्वारा अनेक प्रकार के बन्धनो तथा दुःखों की सृष्टि कर डालता है और जब सबल एवं सविवेक होना हैनी अपनी वृत्तिको बदल कर - भय, कायरता और गलतफहमीको दूर भगा कर—उन बन्धनों तथा दुग्बो 'छुटकारा पा जाता है ।] "सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या संस्तयसे जनैः । नारयो लेभिरे पृष्टं न वक्षः परयोषितः ।। " 'लोग तुम्हारी जो यह स्तुति करते हैं कि तुम मदा मत्र कुछ देने वाले हो वह मिथ्या है; क्योंकि शत्रुओं
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कभी तुम्हारी पीठ नहीं पाई और न परस्त्रियोंने छानी ।' भावार्थ - शत्रुओं को पीठ देना और परक्षियों को छाती दान करना, ये दोनों ही प्रशंसा के कार्य नहीं किन्तु निन्दा के कार्य हैं, अतः इनके न देनेमें ही मशी प्रशंसा है।
"मनुष्य हे दुर्बलदुःखदातः कियचिरं स्थास्यति दर्बिल ते । त्वज्जीवनान्कि फलमस्ति लोक व मुनिस्तं परदुःखदानात ॥"
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दुर्बलों को मनाने वाले मनुष्य ' तेरा यह भुजबल कब तक कायम रहेगा ? – कब तक तेरे अत्या चार का यह बाजार गर्म रहेगा ? नोक में तेरे जीन मे क्या फायदा है ? दूसरों को दुख देने तो नग मर जाना ही अच्छा है।
" श्रात्मनः प्रतिकूलानि परं न समाचरेत् । "
'जो जो बातें, क्रियाएँ, चेष्टाएँ तुम्हारे प्रतिकूल हैंजिनके दूसरों द्वारा किये जानेवाले व्यवहारको तुम अपने लिये पसंद नही करने, अहितकर और दुखदाई समझन हो - उनका आचरण तुम दूसरो के प्रति मनकरो । [ यही धर्मका सर्वस्व अथवा पापो बचाने वाला मंत्र है । ]
"यावत्स्वस्थपितं शरीरमरुजं यावज्जगती यावद्रियशक्तिरप्रतिहता यावन्त्रयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नी महान मंदीमं भवने तु कूपग्वननं प्रत्ययमः कीटाः ॥
'जब तक यह शरीर स्वस्थ तथा नीरोग है, जब प्रप्रतिहत बनी हुई है और जब तक आयुका जय नहीं तक बढापा नहीं आया है, जब तक इंद्रियों की शक्ति हुआ है तब तक ही विद्वानों को श्रात्मा के कल्याणसाधनका महान यत्न कर लेना चाहिये | अन्यथाइनमें किसी बानके हो जा पर फिर कुछ भी नहीं बन सकेगा । उस तका उद्यम पर भाग लगने पर का योदने-जैमा निर्धक होगा।