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________________ अनेकान्त [वर्ष १,किरण ८, ९,१० विस्तृत मंडलको अपील करता है। मैं आपके पत्रके ७६ श्री० दशरथलालजी, ऑन० सपरिटेंडेंट लिये सब प्रकारकी सफलता चाहता हूँ। जैन होस्टल, जबलपुर__ मैं यह देख कर प्रसन्न हूँ कि दोनों किरणोंमें " सांप्रतिमें किसी समाजकी मानसिक प्रगतिको कर्णाटकी जैनकवियों पर लेख हैं । ये अंश इस लिये देखने के लिये उस समाजकी साहित्यिक पत्र-पमहत्वके हैं कि वे कनडी न जाननेवाले जैनियोंको उस साहित्यिक कार्यका परिचय कराते हैं जो कि उनके त्रिकाएँ ही एक अच्छे साधन समझे जाते है। सहधर्मियोंन कर्णाटक देशम किया है।" । इधर कुछ वर्षों से 'जैनहितैषी' जैसे गंभीर नीति वान पत्रक अभावमें जो अंधकार छा गया था, "(हालके पत्रमें ) मैं यह देख कर प्रसन्न हूँ कि 'अनकान्त' से अब यह गतप्राय हाता प्रतीत आप इस उपयोगी पत्रके प्रकाशन-द्वारा अमली ज़रू होता है । वास्तवमें आप जैसे सुयोग्य लब्धख्यात रतको पूरा कर रहे हैं।" विद्वानसे हमें ऐस ही अपर्व और दृढ कार्यके ७५ पं० नलिनजी, न्यायनीर्थ, कुचामन सम्पादनकी आशा थी । आपके सम्पादकत्वमें 'अनकान्त' के उदयसे अनेक हताश और क्षुब्ध । मारवाड़ ) हृदय-कमल विकसित हो उठे हैं और यह निम्संद"आपके 'अनकान्त' के तीन चार अंक दग्वे । ह है कि पत्र होनहार ही नहीं बल्कि तिमिराच्छन्न लेखों और कविताओंका चुनाव मनाहर है । जैनममा- जैन संसारक मुखको समुज्वल प्रकाशित करने जमें चिरकालसं एक मासिक पत्रकी आवश्यकता थी साहित्य-गगनका एक चमकता हुआ तारा सिद्ध आपने उसकी पूर्ति कर जो पनीत और आदर्श कार्य होगा । पत्र समाजका गौरव होगा, यह उसका किया है उसके लिए आप धन्यवादके पात्र हैं। मिल हुए अनेक माधवाद, आशीर्वाद व हार्दिक आप जैन समाजके गंभीर अध्ययनशील वि- धन्यवादोंस सिद्ध है। पत्रकी नीति उसकी गंभीद्वान हैं । जिन्होंने आपकी अनुशीलनीय कृतियोंका ग्ताकी यथेष्ट परिचायक है । मैं पत्र : चिरंजीव मनन किया है वह आपके आदरणीय व्यक्तित्वसं होनेकी हार्दिक मनांकामना करता हूँ । साथ ही अच्छी तरह परिचित हैं । पत्रके प्रत्येक अंकमें आपके योग्य संवाका अभिवचन देता हूँ।" व्यक्तित्वका स्पष्ट दर्शन होता है । जैनोंके अलभ्य और ७७ संपादक 'दृढोमर वंश्य', लखनऊअमूल्य साहित्यका इसके हर अंकमें कुछ-न-कुछ परि- __"इसमें जैन दर्शनकं उच्चकोटिके लख रहते हैं । चय मिलता रहेगा यह बड़े अानन्दकी बात है । हमें दर्शन जैसे गंभीर विषयका यह महत्वशाली पत्र पाशा और विश्वास है कि जैनोंके म्रियमाण अपार है।" माहित्यके लिए आपका यह विशाल प्रायोजन 'मृत्यजय' महौषधिसे कम फलोत्पादक न होगा। हम इस के चिरजीवि होनेके अत्यन्त अभिलाषी हैं।"
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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