SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 524
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रंथ हैं: आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] योगीन्द्रदेवका एक और अपभ्रंश ग्रंथ क्लियोसे अनभिज्ञ नहीं है जब कि वे कहते हैं :- " इति श्रीयोगीन्द्रदेव विरचित दोहापाहुडं इत्थ न लिव्व पंडियहि, गणदोसु वि पुणरुत्तु । नाम ग्रंथं समाप्त।" भट्टपभायरकारणई, मइ पुण पुणु वि पउत्तु ॥३४२ इस ग्रंथमें कुल २२० दोहे हैं। मौजदा गुटिकाकी कुछ समय हुआ दैवयोगसे मुझे देवनागरी लिपि- करुण कथा यह है कि उसके बहुतसे अक्षर तथा पंमें एक हस्तलिखित गटिकाकी प्राप्ति हुई, जिसमें निम्न क्तियाँ रगड़ खा गई हैं और खास कर उन अंशोंका स्पष्टीकरण होना बहुत ही कठिन हो गया है जो कि ___ भक्तामर स्तोत्र; श्रीदेवनन्दिकृत लघु स्वयंभस्तोत्र; लाल रोशनाईस लिखे हुए हैं । इससे इस पूरे ग्रंथ भावना बत्तिसी ( अमितिगति-द्वात्रिंशतिका); बलिभ- (दोहापाहुड ) की कापी करनेके मेरे प्रयत्न असफल द्रस्वामी रउवी (?) (हिन्दी); अतभक्ति; तत्त्वार्थसत्र हुआ है और मैं एक अच्छी हस्तलिखित प्रतिकी तला(मूलमात्र ); मार्गणा स्थानकी गणनात्मक-सचियाँ; शमे हूँ। लेखक 'अनेकान्त' के उन कृपाल पाठकोंका गाम्मटसारसे कुछ चने हुए नोट; श्रीयोगीन्द्रदेवविर- बहुत अाभारी होगा जो उस इम बातकी सूचना देंगे चित दाहाग्रहुड ( मूलमात्र ); परमात्मप्रकाश ( मूल- कि क्या यह ग्रंथ किसी दूसरी जगह मौजूद है। मात्र); पडिकम्मामि इत्यादि; शान्तिभक्ति; सामायिक; इस प्रन्थके विषय समाधिपरक प्रकृतिको लिये दशभक्ति मेंस कुछ भक्तियाँ; देवसनका आगधनासार हुए है जहाँ कि ग्रंथकार देह और जीवमें, पौद्गलिक (मूल मात्र); आशाधरविरचित जिनसहस्रनाम। सामग्री और चैतन्य-विशिष्ट-श्रात्मामें भेद करता है ___ जहाँ तक मैं जाँच सका हूँ,यह हस्तलख (गटिका) और अन्तमें आत्माके सारभूत स्वाभाविक गुणों पर दा सौ वर्षसे अधिक पुराना है। यह काली और लाल निश्चयनयकी दृष्टि से विचार करना है।। गेशनाईसे लिखा हुआ है। इधर उधरकी थोडीसी बड़े कष्टम मैंने कोई सत्तर पद्योंकी कापी की हैलिपिकर्ताकी अशुद्धियों को छोड़ कर यह अच्छा शद्ध जिनमेंसे भी कुछ ग्वण्डिताङ्ग हैं। इस प्रन्थमें बहुतसी है । मैंने ‘परमात्मप्रकाश' और 'आराधनासार' ( मा० पक्तियाँ तथा वाक्य ऐसे हैं जो कि इन्हीं ग्रन्थकारके ग्रंथमाला ) के मुद्रित संस्करणोंको जो इस गटिकास दूमर दा ग्रन्था परमात्मप्रकाश और योगसार के मिलान किया तो मुझे इस गटिकाकं बहतम पाठ नोट माथ ममानता रखते है। इन ग्रंथों में लेखनपद्धति और किये जानेके योग्य मालूम हुए। वाक्यरचनाका गाढ सादृश्य है । मैं इन तीनों ग्रन्थों___ इस गुटिकामस इम समय हमारे सामने सिर्फ के समान वाक्यांका तुलनात्मक नकशा देना नहीं चा'दोहापाहूड' का विचार प्रस्तुत है, जो कि एक मह ___ हता हूँ-वह उस समय भले प्रकार दिया जा सकेगा स्वका ग्रंथ है । यह अपभ्रंश भाषामें है और इसकी " जब कि दोहापाहुडकी एक और अच्छी तरहसे पढ़ी पष्पिका स्पष्ट बतलाती है कि यह योगीन्द्रदेव-द्वाग * इम ग्रन्थ की एक प्रति दहनीक नये मदिरक भण्डारमें रचा गया है : मौजूद है, जिसका पता इस लेखको प्रेसमें देते समय चला और इसलिये उसका जानने योग्य विशेष परिचय लेखके अन्तमें एक ४ लेवः' यह पाठान्तर एक हस्नलिन्धित प्रनिमें पाया जाता है। नाद्वारा दे दिया गया है. उम ज़ार दखिये। -सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy