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________________ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९, १० योगीन्द्रदेवका एक और अपभ्रंश ग्रन्थ [लेखक-श्री० ए० एन० उपाध्यायजी, एम. ए.] उत्तर-भारतीय भाषाओंके अभ्यासी अप्रभ्रंश तुलना करने पर एक मनुष्य सहज हीमें यह मालूम प्रन्थोंके अध्ययनकी उपेक्षा नहीं कर सकते, कर सकता है कि ग्रन्थकार महाशय कैसे उन्हीं शब्दो जो कि हिन्दी और : 4 अथवा पदोको दोनों हम लेखक लेखक उपाध्यायजी सदलगा जि०: ग्रंथोंमें दुहरानके अगुजरानीकी भाषा-वि- : बेलगामके रहने वाले एक बड़े ही सज्जन तथा विनम्र षयक पर्वावस्थाओंक: प्रकृतिके जैन विद्वान् हैं। इस वर्ष आपने जैनसाहित्यमें : भ्यासको लिये हुए थे, अध्ययनके लिये बहुत : एम. ए. पास किया है। शायद दिगम्बर जैनसमाजमें : कभी कभी तो ऐसी आप ही प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने जैनसाहित्यमें एम.ए. : पनरुक्तियाँ उसी एक उपयोगी साधन-साम * किया है। आजकल आप कोल्हापुरके कालिजमें श्रध-: ग्रन्थमें भी पाई जाती प्रीको लिये हुए हैं। मागधी भाषाके प्रोफेसर एवं लैक्चरार नियत हैं । : जाती हैं । योगीन्द्रदेवजैनसाहित्यके अ- : आप संस्कृत, प्राकृत, कनडी, मराठो तथा अंग्रेजीके भ्यासी श्रीयोगींद्रदेव : अच्छे विद्वान हैं और हिन्दी आदि और भी कई भा-: की लेखनी-लंग्वन पाएँ जानते हैं । ऐतिहासिक खोज अथवा रिसर्चके : पद्धति-का यह रूप के नामसे अच्छी तरह : आप खास प्रेमी हैं -दिन रात उसीमें लगे रहते हैं- ब्रह्मदेव के नोटिसमें से परिचित हैं । वे : और इसलिये आपके द्वारा इस दिशामें बहुत कुछ : भी आनसे बच नहीं परमात्मप्रकाश' के, : काम हानकी आशा है । 'अनकान्त' के पाठकोंका अब : सका, जो कि परमाआपके लेख भी मिला करेंगे । आप कुछ दिन समन्त-: जो कि भट्टप्रभाकरको भद्राश्रममें भी रह गये हैं, तभीसे आपके साथ विशेष त्मप्रकाश पर टीका सम्बोधन करके लिखा । परिचय चलता है । आप अपभ्रंश भाषाके ग्रंथाका : लिखत हुए यह नोट दगया है,और यागसार: संस्कृत छायाकं साथ पढ़नके विरोधी हैं, इसीसं जान-: त है:-अत्रभावनाके कर्ता हैं। ये दोनों : बझकर आपने योगीन्द्रदेवके दाहोंकी छाया नहीं दी। : ग्रंथे समाधिशतका आपका कहना है कि छायाकी इस पद्धतिने हमारे बगहरे आध्यात्मिक म दिवत् पुनरुक्तदृषहुतस शास्त्रियोंका नाश किया है, जो बिना छायाके : हत्वके ग्रंथ है और अ- : कोई भी प्राकृत ग्रंथ पढ़ नहीं सकते, उनकी यह स्थिति : णं नास्ति इनि । पभ्रंशमें लिखे गये हैं : बड़ी ही दयनीय है। अस्तु; दोहे बहुत कुछ सुगम हैं, तदपि कस्मादिनिजो कि प्राकृतभाषाका : पुरानी हिन्दीमें समझिये, थोडासा बुद्धि पर जोर देन-: चेत् अर्थ पुनः पुनः से पाठक उनका अर्थ सहज हीम मालम कर सकेंगे। : शिन्तनलमणमिति एक उपभेद है। इन -सम्पादक दोनों प्रन्थोंकी गाढ़ वचनादिति मत्वा' --- इत्यादि । और क्या ? खुद श्रीयोगीन्द्रदेव भी पुनरु१ यह रायचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित हुभा है। २ यह माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित हुआ है, जिल्द २१॥ ३ परमात्मप्रकाश पृ. ३४८ .. ... ... .... .... .... . .... ... .
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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