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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कर्णाटक जैनकवि
४६१ ७ मौक्तिक ( ल०११२० )
वाग्बन्लकी वैणिक (ल०११५०) इमन 'चन्द्रनाथाष्टक' लिखा है । इस अष्टक में इसने चन्द्रप्रभ-स्तुति लिखी है जो १४ कन्द पद्यों बनलाये हुए पेरणेगडलु तथा हेण्णेगडलु प्राम जैन- में है और बहुत सुन्दर है । इसमें कवि ने अपना नाम धनियायी कोगालव राजाओं के अधीन थे । वीर न बतला कर केवल अपने विरुद का ही उल्लेख किया कोंगालव राजा (ल० ११२० ) ने 'मेघचन्द्र' के शिष्य है। इसका समय ११५० के लगभग होना चाहिए। 'प्रभाचंद्र' सिद्धान्तदेव को ये गाँव दान दिये थे, ऐसा
१० वीरनन्दि (११५३ ) एक शिलालेख से मालूम होता है ।
इन्होंने स्वोपज्ञ आचारसार' का एक कनड़ी व्या८ जगद्दल सोमनाथ (ल० ११५०) ख्यान लिया है । इनके गुरु 'मेघचन्द्र' थे । इसकी इसने कनड़ी में 'कल्याणकारक' लिखा है। इसको निम्न लिखित प्रशस्ति मे मालम होता है कि इन्होंने 'विचित्र कवि' भी कहते थे । इस ग्रन्थ मे लिखा है कि श्रीमुख संवत्सर १०७६ शक (ई०स० ११५३) में व्याइम 'सुमनोवाण' और 'अभयचन्द्र' सिद्धान्ति ने मं- ख्यान लिखा हैशोधित किया है, इस होता है कि यह सुम- "स्वस्ति श्रीमन्मेषचन्द्र-विद्यदेवरश्रीपाद नोवाण का समकालीन था और सुमनोवाणका समय प्रमाहासादितात्मप्रभाव-समस्तविद्यापम वसकलगभग ११५० है । इसने 'माधवेन्दु' का स्मरण किया लदिग्वतिकीर्ति-श्रीमद्वीग्नन्दिसिद्धान्तचक्रवर्ति है । यह माधवेन्दु ११३१ में मृत्युंगत होने वाले गंगराज गल्" इत्यादि--- के पुत्र वोप्प का गुरु था, ऐसा श्रवणवेल्गल के ई०स० ११ देवेन्द्र मुनि ( ल०१२०० ) ११३५ के एक शिलालेख से प्रकट होता है । इसमे भी इन्होंने 'बालग्रहचिकित्सा' नामका गद्यमय प्रन्थ उक्त समय ठीक जान पड़ता है।
लिग्वा है । इनका ममय ई०स०१२०० के लगभग जान कनड़ी 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रन्थ है और पूज्य- पड़ना है। पाद कृत 'कल्याणकारक' का अनुवाद है। मिली हुई
शुभचन्द्र ( ल. १२०० ) अपर्ण प्रति में केवल आठ अध्याय है । इसमें लिवा इन्होंने कार्तिकयानप्रेक्षा की टीका लिखी है और है कि पूज्यपाद का 'कल्याणकारक' बाहट (वाग्भट्ट), आपको त्रैविद्य विद्याधर पडभाषाकविचक्रवर्ती बतसिद्धसार, चरक आदि के ग्रन्थों की अपेक्षा श्रेष्ठ है लाया है। इनका समय ई०स०१२०० के लगभग जान और उसकी चिकित्सा मद्य-मांम-मधु-वर्जित है। पड़ता है।
इसके प्रारंभ में चन्द्रनाथ, पंच परमेष्ठी, सरस्वती, १३ मल्लिकार्जुन (ल०१.४५ ) माधवेन्द, सैद्धान्तिक चक्रवर्ति माधवेन्दु और कनक- इसने 'सक्तिसुधार्णव' नामक ग्रंथ लिखा है जिसे चन्द्र पंडितदेव का स्मरण किया गया है। काव्यसार' भी कहते हैं । इसमें १९ श्राश्वास हैं; परंतु
कीर्तिवर्मा (ल० ११२५ ) के 'गोवैद्य' को छोड़ अभी तक यह संपूर्ण उपलब्ध नहीं हुआ है । इसमें कर कनड़ी में यही सत्र से प्राचीन वैद्यक प्रन्थ है। काव्योपयोगी १८ विषयों का संग्रह जुदे जुदे प्रन्थों