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________________ ६४२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११, १२. का इतिहास तलाश किया जायगा तो ऊपरकी बात शास्त्रीय सत्योंमें और शास्त्रीय भावनाओंमें नया कदम पर विश्वास हुप विना नहीं रहेगा । यहाँ उदाहरणके बढ़ाता है । यह नया कदम पहले तो लोगोंको चमका तौर पर आर्य ऋषियोंके अमुक वेदभागको मूल देता है और सभी लोंग या लोगोंका बहुभागरूढ और रचना मान कर प्रस्तुत वस्तु समझानी हो तो ऐसा श्रद्धास्पद शब्दों तथा भावनाओंके हथियारद्वारा इस कहा जा सकता है कि मंत्रवेदका ब्राह्मण भाग और नये विचारक या सर्जकका मस्तक फोड़नेको तैयार जैमिनीयकी मीमांसा ये प्रथम प्रकारके रक्षक हैं। और हो जाते हैं। एक तरफ विरोधियोंकी पलटन (सेना) उपनिषद्, जैन आगम, बौद्ध पिटक, गीता, स्मृति और और दूसरी तरफ़ अकेला यह नया आगन्तुक । विअन्य वैसे अन्य ये द्वितीय प्रकारकं रक्षक हैं; क्योंकि रोधी इसको कहते हैं कि 'तू जो कहना चाहता है,जो ब्राह्मण ग्रंथोंको और पूर्वमीमांसाको मंत्रवेदमें चली विचार दर्शाता है वे इन प्राचीन ईश्वरीय शास्त्रोंमें कहाँ भाने वाली भावनाओं की व्यवस्था ही करनी है-उम है ?' पुनः वे विचारे कहते हैं कि 'प्राचीन ईश्वरीय के प्रामाण्यको अधिक मजबूत कर उस पर श्रद्धाको शास्त्रोंके शब्द तो उलटे तुम्हारे नये विचारके विरुद्ध दृढ़ ही करना है। किसी भी तरह मंत्रवेदका प्रामाण्य ही जाते है ।' यह विचारा श्रद्धाल होते हुए एक दृढ़ रहे यही एक चिन्ता ब्राह्मणकारों और मीमांसकों आँख वाले विरोधियों को उस ( पहले ) आगन्तुक या की है। उन कट्टर रक्षकोंको मंत्रवेदमें वृद्धि करने योग्य विचारक स्रष्टा जैसे के ही संकुचित शब्दों से अपनी कुछ भी नजर नहीं पाता, उलटा वद्धि करनेका विचार विचारणा और भावना निकाल कर बतलाता है । इस ही उन्हें घबरा देता है। जब कि उपनिषदकार, आग- प्रकार इस नये विचारक और स्रष्टाद्वारा एक समयके मकार, पिटककार वगैरह मंत्रवेदमेंसे मिली हुई विग- प्राचीन शब्द अर्थदृष्टि से विकसित होते हैं और नये मनको प्रमार्जन करने योग्य, वृद्धि करने योग्य और विचारों तथा भावनाओंका नया पटल ( काट ) आता विकाम करने योग्य समझते हैं। ऐसी स्थितिमें एक ही है और फिर य. नया पटल समय बीनिं पर पुराना विरासतको प्राप्त होने वाले भिन्न भिन्न ममयोंके और हो कर जब कि बहुत उपयोग नहीं रहा अथवा उ. समानसमयके प्रकृतिभेद वाले मनुष्यों में पक्षापक्षी पड़ लटा बाधक हो जाता है तब फि' नये ही स्रष्टा तथा जानी है. और किले बन्दी खड़ी हो जाती है। विचारक पहले के पटल पर बढी हुई एक बार नई और हालमें पुरानी हो गई विचारणाओं नथा भावनाओं पर नवीन और प्राचीनमें बंद नया पटल चढ़ाते हैं। इस प्रकार बाप दादाओंसे अनेक ऊपरकी क़िलेबन्दीमेम सम्प्रदायका जन्म होता बार एक ही शब्दके खोलमें अनेक वि वारणाओं और है और एक दूसरेके बीच विचारका संघर्ष खूब जम भावनाओं के पटल हमारे शास्त्रमार्गमें देखे जा सकते जाता है । देखनेमें यह संघर्ष अनर्थकारी लगता है। हैं। नवीन पटलके प्रवाहको प्राचीन पटलकी जगह परन्तु इस संघर्षके परिणामस्वरूप ही सत्यका प्रावि- लेने के लिये यदि स्वतन्त्र शब्द निर्माण करने पड़े होते र्भाव आगे बढ़ता है । कोई पुष्ट विचारक या समर्थ और अनुयायियोंका क्षेत्र भी अलग मिला होता तो अष्ठा इमी मंघर्ष से जन्म लेता है और वह चले भाते उस प्राचीन और नवीनके मध्यमें वंद्व का-विरोधका
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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