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आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] शास्त्र मर्यादा
६४१ आविर्भावके सूचक, अथवा उस अखंड सत्यके
सर्जक और रक्षक देशकाल तथा प्रकृतिभेदानुसार भिन्न भिन्न पक्षोंको प्रस्तुत करते हुए मणका-शास्त्र हैं। यह बात किसी भी शास्त्र कुछ के हाथों रचे जाते हैं,तथा कुछ के हाथों विषयके ऐतिहासिक और तुलनात्मक अभ्यासीकं लिए सँभाल किये जाते हैं-रक्षा किये जाते है और दूसरे समझनी बिलकुल सरल है। यदि यह समझ हमारे कुछ मनुष्यों के हाथों मँभाल के अतिरिक्त उनमें वृद्धि हृदयमें उतर जाय (और उतारनेकी जरूरत तो है ही) की जाती है । रक्षको, सुधारको और परिशिष्टकारों तो अपनी बातको पकड़े रहते हुए भी दूसरे के प्रति (पृर्तिकारों) की अपेक्ष मर्जक (ग्चयिता) हमेशा कम अन्याय करते बच जाना चाहिये और ऐसा करके होते हैं । सर्जको भी मब समान हा कोटिक हान दूसरेको भी अन्यायमें उतारनेकी परिस्थतिस बचा है एमा समझना मनुष्यप्रकृतिका अज्ञान है । रक्षकों लेना चाहिये । अपने माने हुए सत्यके प्रति बराबर के मुख्य दो भाग होते है। पहला भाग सर्जककी कृति वफादार रहने के लिये यह बात ज़रूरी है कि उसकी का आजन्म वफादार रह कर उसका आशय समझने जितनी कीमत हो उममें अधिक ऑक करके अंधश्रद्धा की, उसे स्पष्ट करनेकी और उसका प्रचार करनेकी कोविकसित नहीं करनी तथा कमती आँककर नास्तिकता शिश करता है। वह इतना अधिक भक्तिसम्पन्न होना नहीं दिखलानी । ऐसा किया जाय तो यह मालम हुए है कि उसके मनको अपने पूज्य स्रष्टाक अनभवमें काल विना न रहे कि अमुक विषयसंबंधी सत्यशोधकांकं भी सुधारने योग्य या फेरफार करने योग्य नहीं लगना। मंथन क्यों तो सभी शास्त्र हैं, क्यों सभी अशान है इसमें वह अपन पूज्य प्रशाक वाक्यांका अक्षरशः और क्यो सभी कुछ नहीं।
पकड़े रह कर उनमे ही मब का फालन करनेका देश, काल और संयोगस परिमित सत्यके आवि- प्रयत्न करना है और संमारकी नफ दग्वनी दसरी र्भावकी दृष्टिसं ये सब ही शास्त्र है, मन्यके मम्पर्ण ऑग्य बन्द का लेता है । जब कि रक्षकों का दमग और निरपेक्ष आविर्भावकी दृष्टिस ये मब ही अशास्त्र भाग भक्तिसम्पन्न होनेके अतिरिक्त इष्टिमम्पन्न भी हैं और शास्त्र यांगके पार पहुंचे हुए समर्थ योगीकी होता है। इसमें वह अपने पज्य स्रष्टाकी कृतिका धनदृष्टिस ये सब शास या अशा कुछ भी नहीं। मान मरण करते हुए भी उस अनरशः नहीं पकड़ रहता, हुए साम्प्रदायिक शास्त्रविषयकं मिथ्या अभिमानका उलटा वह उममें जो जो टियाँ दंग्यता है अथवा परि. गलाने के लिये इतनी ही समझ काफी है । यदि यह पतिकी आवश्यकता समझता है उसे अपनी शक्य. मिथ्या अभिमान गल जाय तो मोहका बन्धन दूर होने नसार दूर करके या पूर्ण करके ही वह उस शास्त्रका ही संपर्ण महान पुरुषोंके खंड सत्यामे अखंड सत्यका प्रचार करता है । इस गतिसे ही रक्षकोंके पहले भागदर्शन हो जाय और मभी विचारसरणियोंकी नदियाँ द्वारा शास्त्र प्रमार्जन तथा पनि न पाते हुए एक देशीय अपने अपने ढंगसे एक ही महासत्यके समुद्रमें मिलती गहराईको लिये रहते हैं और रक्षकोंक द्वितीय भागहैं, ऐसी स्पष्ट प्रतीति हो जाय । यह प्रतीति करानी ही द्वारा शास्त्र प्रमार्जन तथा पनि मिलने के कारण विशाशास्त्ररचनाका प्रधान उद्देश्य है।
लताको प्राप्त होते हैं। किसी भी स्रष्टाके शास्त्रसाहित्य