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________________ ६४० अनेकान्त [वर्ष १, किरण ११ १२ है और उसीमें पूर्ण सत्य है ऐसी मान्यता रखने वाला सत्य .कट किया हो ? हम जर भी विवार करेंगे तो होजाता है । ऐसा होनेसे मनुष्य मनुष्यमें, समूह समूह- माल र पड़ेगा कि कोई भी मर शोध अथवा शास्त्र. में और सम्प्रदाय सम्प्रदायमें शास्त्रकी सत्यता-असत्य- प्रणेता अपनको मिली हुई विरासतकी भूमिका पर ही ताके विषयमें अथवा शास्त्रकी श्रेष्ठताके तरतम भावके खड़ा हो कर अपनी दृष्टिप्रमाण या अपनी परिस्थिति विषयमें भारी झगड़ा शुरू हो जाता है । प्रत्येक मनुष्य को अनुकूल पड़े उस रीतिसे सत्यका आविर्भाव करने स्वयं माने हुए शासके अतिरिक्त दूसरे शास्त्रोंको मिथ्या को प्रवृत्त होता है और वैसा करके सत्यके आविर्भाव या अपूर्ण सत्य प्रकट करने वाले कहने लग जाता है को विकसित करना है। यह विवारसरणी यदि फेंक और ऐसा करके सामने के प्रतिस्पर्धीको अपने शास्त्र. देने योग्य न हो तो ऐसा कहना चाहिये कि कोई भी विषयमें वैसा कहने के लिये जाने अनजाने निमन्त्रण एक विषयका शास्त्र उस विषयमें जिन्होंने शोध चलाई, देता है। इस तूफ़ानी वातावरणमें और संकीर्ण मनोवृत्ति जो शोध चला रहे हैं या जो शोध चलाने वाले हैं उन में यह तो विचारना रह ही जाता है कि तब क्या सभी व्यक्तियोंकी क्रमिक तथा प्रकार भेद वाली प्रतीतियोंका शाख मिथ्या या सभी शास्त्र सत्य या सभी कुछ नहीं? संयोजन है। प्रतीतियाँ जिन संयोगोंमें क्रमसे उत्पन्न हुई यह तो हुई उत्तर देनेकी कठिनाई की बात । परंतु हों उन्हें संयोगोंके अनुसार उसी क्रमसे संकलित कर जब हम भय, लालच और संकुचितताके बन्धनकारक लिया जाय तो उस विषयका पूर्ण-अखण्ड-शास्त्र बने । वातावरणमेंसे छूट कर विचारते हैं तब उक्त प्रश्नका और इन सभी त्रैकालिक प्रतीतियों या आविर्भावों से निबटारा सुगमतासे ही हो जाता है और वह यह है अलग अलग मणकं ले लिये जाय तो वह अखंड शास्त्र कि सत्य एक तथा अखंड होते हुए भी उसका प्रावि- न कहलाए। तो भी उसे शास्त्र कहना हो तो इतनं अर्थ र्भाव ( उसका भान ) कालक्रममे और प्रकारभेदमे में कहना चाहिये कि वह प्रतीतिका मणाका भी एक होता है । सत्यका भान यदि कालक्रम विना और प्र- अण्वंड शास्त्रका अंश है। परन्तु ऐसे किसी अंशको यदि कारभेद विना हो सकता होता तो आजसे पहले कभी सम्पूर्णनाका नाम देनेमें आवे तो यह ही मिथ्या है । का यह सत्यशोधका काम पूर्ण हो गया होता और यदि इस बातमें बाधा देने योग्य कुछ न हो मैं तो कोई इस दिशा में किसीको कुछ कहना या करना भाग्यसे बाधा नहीं देता ) तो हमें शुद्ध हृदय मे स्वीकार करना ही रहा होता । जो जो महान पुरुष सत्यका आविर्भाव चाहियेकि मात्र वेद, मात्र उपनिषद, मात्र जैनागम, करने वाले पृथ्वी तल पर हो गये हैं उन्हें भी उनके मात्र बौद्ध पिटक, मात्र अवता, मात्र बाइबिल मात्र, पहले होने वाले अमुक सत्यशोधकोंकी शोधकी विरा- पुगण, मात्र कुरान, या मात्र वे वे स्मनियों, ये अपने सत मिली ही थी। ऐसा कोईभी महान पुरुष क्या तुम अपने विषयसम्बन्धमें अकेले ही सम्पूर्ण और बता सकोगे कि जिसको अपनी सत्यकी शोधमें और अन्तिम शास्त्र नहीं । परन्तु ये सब ही आध्यात्मिक सत्यके माविर्भावमें अपने पूर्ववर्ती और समसमयवर्ती विषयसम्बन्धमें, भौतिक विषयसबन्धमें अथवा दूसरे वैसे शोधककी शोधकी थोड़ी भी विरासत न सामाजिक विषयसम्बन्धमें एक अलगड त्रैकालिमिली हो और मात्र उसने ही एकाएक अल्पसे वह कशास के क्रमिक तथा प्रकार भेद वाले सत्यके
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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