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________________ भाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] शास्त्र मर्यादा -कभी अवकाश ही न रहता । परन्तु कुदरत (प्रकृति) प्राचीन लोगोंके मानसको नया रूप देते हैं। हथोड़ा का आभार मानना चाहिये कि उसने शब्दों और अनु- और एरण के बीचमें मानसकी धातु देशकालानुसार यायियोंका क्षेत्र बिलकुल ही जुदा नहीं रक्खा, जिससे फेरफार वाली भावनामोंके और विचारणामोंके नये पुराने लोगोंकी स्थिरता और नये प्रागन्तुककी दृढता नये रूप धारण करती है और नवीन-प्राचीनकी कालके बीच विरोध उत्पन्न होता है और कालक्रमसे यह चकीके पाट नवीन नवीन दलते ही जाते हैं और म. विरोध विकासका ही रूप पकड़ता है। जैन या बौद्ध नष्यजातिको जीवित रखते हैं। मूल शास्त्रोंको लेकर विचार कीजिये या वेद शास्त्रको मान कर चलिये तो भी यही वस्तु हमको दिखलाई वर्तमान युग पड़ेगी। मंत्रवेदमेंके ब्रह्म, इन्द्र, वरुण ऋत, ता, सत्, इस युगमें बहुतसी भावनाएँ और विचारणाएँ असत्, यज वगैरह शब्द तथा उनके पीछेके भावना नये ही रपमें हमारे मामने पाती जाती हैं। राजकीय और उपासना लो और उपनिषदोंमें नजर पड़ती हुई या मामाजिक क्षेत्रमें ही नहीं किन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र इन्हीं शब्दोंमें श्रारापित की हुई भावना तथा उपासना तकमें त्वगबन्ध नवीन भावना प्रकाशमें भाती जानी लो। इतना ही नहीं किन्तु भगवान महावीर और बद्ध हैं। एक तरफ भावनाओंको विचारकी कमौटी पर के उपदेशमें स्पष्टरूपसं तैरती ब्राह्मण, तप, कर्म, वर्ण चढ़ाये विना स्वीकार करने वाला मन्द बुद्धि वर्ग होता वगैरह शब्दोंके पीछेकी भावना और इन्हीं शब्दोंक है, तब दूसरी तरफ इन भावनाओं का विना विचार पीछे रही हुई वेदकालीन भावनाओं को लेकर दोनोंकी फेंक देन या खाटी कहनं जैमी जग्ठ बुद्धि वाला वर्ग तुलना करा; फिर गीतामें स्पष्ट रूपमं दिखाई देती हुई भी कोई छोटा या अनस्तित्वरूप नहीं । इन संयोगों में यज्ञ, कर्म, संन्यास, प्रवृत्ति, निवृत्ति, योग, भोग वगैरह क्या होना चाहिये और क्या हुआ है, यह सममानके शब्दोंके पीछे रही हुई भावनाओं को वेदकालीन और लिय उपरकी चार बान चर्चित की गई हैं। सर्जक उपनिषदकालीन इन्हीं शब्दोंके पीछे नही हुई भाव- और रक्षक मनुष्य जातिक नैसर्गिक फल हैं। इननाओंके साथ था इस युगमें दिखाई पड़ती इन शब्दों के अस्तित्वको प्रकृति भी नहीं मिटा सकता । नवीनपर आरोपित भावनाओं के साथ तुलना करो तो पिछलं प्राचीनका द्वंद्व मत्यक आविर्भाव और उस टिकान पाँच हजार वर्षों में आर्य लोगोंके मानसमें कितना ( स्थिर सम्बन) का अनिवार्य अंग है। अतः इससे भी फेर पड़ा है यह स्पष्ट मालूम पड़ेगा । यह फेर कुछ मत्यप्रिय घबराता नहीं । शास्त्र क्या ? और ऐसा एकाएक नहीं पड़ा, या विना बाबा और विना विरोध शास्त्र कौन? ये दो विशेष बातें दृष्टिकं विकास के लिए के विकासक्रममें स्थानको प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि अथवा ऐसा कहा कि नवीन प्राचीनकी टकर के दधिइस फेरके पड़नमें जैसे समय लगा है वैसे इन फेरवाल मंथनमेंस अपन श्राप निर श्रानं वाले मक्खनको पहपटलोंको स्थान प्राप्त करने में बहुत टकर भी सहनी चाननकी शक्ति विसकित करने लिय बर्षित की गई पड़ी है। नये विचारक और सर्जक अपनी भावनाके हैं। ये चार खास बातें तो वर्तमान यगकी विचारहथोड़ेसे प्राचीन शब्दोंकी एरण ( निहाई ) पर णाओं और भावनाओंको समझने के लिये मात्र प्रस्ता
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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