SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 618
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] विशेष नोट ये 'मायण' और 'वीरेण' अर्थ वाली पिछली दो तकारमें इकारका पाविर्भाव हो गया हो । पर्वत पर कल्पनाएँ उक्त लेखपंक्ति की प्रकृतिको देखते हुए ज्यादा शिलालेखकी स्थिति इतनी जीर्ण-शीर्ण तया अनेक संगत मालूम होती हैं । इनमें भी यदि लेख नं० ३ में गहों और स्फोटादिको लिये हुए है कि उसमें 'त' को प्रयुक्त हुआ 'वेरस' पद निर्धान्त हो तो 'वेरेन' पाठकी 'ति' कल्पना कर लेना कोई विशेषकठिन बात नहीं है। कल्पना अधिक समुचित जान पड़ती है। इनके सिवाय कुछ भी हो, पहला पाठ अधिक संगत मालूम होता है, एक और भी कल्पना की जा सकती है और वह यह जिससे उस पदका यह प्राशय होता है कि खारवेल कि खारवेलकी माताका नाम 'इरा' हो और इसी से चेतराजके वंशको-कुलको-वृद्धिंगत करने वाला आप 'ऐर' कहलाते हों, जैसे 'इला' का अपत्य (पत्र) था। और इस तरह 'चंतगज' प्रायः खारवेलके पिता होनेसे राजा 'ऐल' कहलाया; अन्यथा उसका असली का नाम जान पड़ता है। इस प्रकार वंशवर्धन या नाम हिन्दूशास्त्रानुसार 'पुरूरवाः' था। कुलवर्धनादि शब्दोके माथ पिता गुरु बादिके नामका __रही दूमरे पदके पाठकी बात, उसे जहाँ तक मुझे उल्लेण्य करनेकी परिपाटी अन्यत्र भी पाई जाती है। मालूम है पहलेसे सभी विद्वान् 'चेतराजवसवधनेन' 'ऐरेन' पदमें माता नाम-समावेशकी कल्पना यदि रूपमें पढ़ते पाए हैं और उसका अर्थ 'चैत्रराजवंश- ठीक हो तो इस पदमें पिताके नामोल्लेषकी बात भोर वधनेन' किया जाता रहा है । खद बाब काशीप्र- भी दृढ हो जाती है-माता पिनाका नाम शिलालेखमें सादजी जायसवालन भी, जिनका रीडिंग ऊपर दिया अन्यत्र कहीं है भी नहीं, जिसकी ऐसे शिलालेखाग गया है, सन् १९१८ में उसं इसी रूपमें पढ़ा था और बहुत कुछ आवश्यकता जान पड़ती है । परन्तु मुनि अर्थ भी 'चेत्रराजवंशवधनेन' ही किया था x। कल्याणविजयजी, उफ थंगवली भाषार पर इसी परन्तु सन् १९२७ के आपके उक्त रीडिंगसे मालम पर्व पाठको ठीक स्वीकार करते हुए 'चेतराज का अर्थ होता है कि अब आपन त' की जगह 'ति' का प्रावि- 'चेटगज' करकं उमं प्यारवलका १५वीं पीढी पहलेका र्भाव किया है और अर्थ भी 'चैत्रराज' की जगह 'चे- पूर्व पुरुष सचित करते हैं। दिगज' के रूपमें बदल दिया है ।। पाठादिकी यह इस प्रकार यह इम शिलालेख-पतिकी तथा एमतबदीली, जहाँ तक मैं समझता हूँ चेदिवंशकी कल्पना के उन दोनों पदोंके अर्थकी परिस्थिति है। इस परिके हृदयमें आने के वाद की गई है। मंभव है लेखक- स्थिनि परमे इतना नी स्पष्ट है कि मूल लेख में 'ऐल' तथा जैसी धारणाके किसी व्यक्तिनं जायमवालजीको चेदि 'चंदिवंश पम कोई उल्लेख नहीं है और जिन वंशकी उक्त बात सुझाई हो और उसके फलस्वरूप शब्दों परमं यह अर्थ निकाला जाता है ये तथा उनका _ -- वह अर्थ अभी विवादापन है और इस लिये लेखकी * उखा, उक प्राचीन जैन लेख संग्रह प्रथम भाग। इम परिस्थितमे बिना किमी भारी स्पष्टीकरण तथा x देखो, जनरल माफ दि विहार ऐड प्रोडीमा रिसर्च मोसायटी समर्थनादिके यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें सार. दिसम्बर 1895 +देखो, जेनसाहित्यशोधक भाग ३, मा प्रथवा उक वेलने अपने का उक्त हरिवंशी ऐलेय का वंशज अथवा बिहार उडीमा जनरलकी सन १९२७ की जिल्ला । चेदि नामके किमी प्रमिद्ध वंशका वंशधर प्रकट कि
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy