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अनेकान्त
'दक्षवंशी' न कहते परन्तु हरिवंशी कहने में कौनसे अपमनकी बात थी, जिस हरिवंशमें भगवान मुनिसुव्रतका अवतार हुआ था ? हरिवंश के संस्थापक राजा 'हरि' ने
'कोई अपराध नहीं किया था, फिर उनके नामके वंशसे इनकार करनेकी अथवा उसका बाईकाट करने की क्या वजह हो सकती थी? और न लेखकको यही सूझ पड़ा है कि भगवान नेमिनाथ तथा दूसरे कितने ही शलाका पुरुष भी तो राजा दक्ष तथा ऐलेय की सन्ततिमें ही हुए हैं, यदि उनके पूर्वज ऐलेयने हरिवंश सं | घृणा धारण करके उसका एकदम बाईकाट कर दिया होता तो ये लोग अपनेका हरिवंशी क्यों कहते ? अथवा भगवान् महावीर और उनके वचनानुसार दूसरे आचार्य उन्हें 'हरिवंशी' क्यों प्रकट करते ? क्या स ज्ञ हो कर भी भ० महावीरको इतनी ख़बर नहीं पड़ी थी कि ऐलेयने हरिवंशका पूरा बाईकाट कर दिया था उसका कोई वंशधर अपनेको हरिवंशी नहीं कहता था तब हमें उसके वंशजोंको 'हरिवंशी' नहीं कहना चा हिये बल्कि ‘ऐलवंशी' कहना चाहिये ? अथवा प्राचीन श्राचार्यों ने ही भ० महावीरके वचनोंके विरुद्ध लवंश' की जगह फिरसे 'हरिवंश' की घोषणा कर दी है? कुछ समझमें नहीं आता कि लेखक महाशयन इन सब बातोंका क्या निर्णय करके विरोध में उक्त वाक्य कहने का साहस किया है !!
[वर्ष १, किरण ११, १२
बघनेन पसथ- सुभलखनेन चतुरंत लुठितगुनोपहितेन कलिंगाधिपतिना सिरि खारवेलेन"
मैं शिलालेख की बात को लेता हूँ । खारवेलने उक्त शिलालेख में म्पष्ट रूप से न तो अपनेको ऐलवं 'राज' लिखा है और न 'चेदिवंशज' । इन दोनों वंशों की कल्पना शिलालेखकी जिस पहली पंक्तिकं आधार पर की जाती है उसका वर्तमान रीडिंग इस प्रकार है:"नमो अरहंतानं [1] नमो सवसिधानं [1]
पेरेन महाराजेन महामेघवाहनेन चेतिराजवस -
वाद
इस पंक्ति में तों तथा सर्व सिद्धों को नमस्काररूप मंगलाचरणके बाद 'ऐरेन' से प्रारम्भ करके जो पद दिये गये हैं वे सब खारवेल के विशेषणपद हैं । उनमें से 'ऐरेन' और 'चेति राजवसवधनेन' ये दो पद ही यहाँ विचारणीय हैं- इन्हीं परसे दोनों वंशों की कल्पना की जाती है । पहले पदका संस्कृत रूप 'ऐलेन' और दूसरेका 'चंदिराजवंशवर्धनेन' बत लाया जाना है। कोई कोई पहले पदका संस्कृतानु'श्रार्ये' करते हैं, जिसका उल्लेख खुद लेखक ने अपने पहले लेख में किया था ( अनेकान्त पृ० ३०० ) और कोई कोई 'ऐरेन' की जगह 'वेरेन' पाठ ठीक बतलाकर उसका अनुवाद 'वीरे' करते हैं और अ पन इस पाठके विषय में लिखते हैं कि यद्यपि 'वे' के स्थान पर बहुत से विद्वान 'ऐ' बाँचते हैं परन्तु एक तो प्राकृत में 'ऐ' अक्षर श्राज तक देखने में नहीं आया, दूसरे इसी वंशके एक दूसरे राजा के लिये शिलालेख नं ३ ( प्रिंसेप के लेखामं नं० ६ ) में बेरस विशेका प्रयोग हुआ मिलता है, जिसका संस्कृत रूप 'बीरस्य' होता है । इस लिये यह पद 'वेरेन' (वीरेण ) होना चाहिये । इसमें 'वे' का 'व' मेघवाहन के 'वा' का 'व' जैसा है। फेर केवल इतना है कि उसका गला कुछ तंग किया गया है जिससे वह 'ऐ' जैसा मालूम पड़ता है X
वह शिलालेख इस प्रकार है :
"वेरस महाराजम कलिंगाधिपतिनां महामेघवाहनasदेपसिरिनो लें ।"
x देखो, मुनि जिनविजयद्वारा संपादित 'प्राचीन जैन लेखसंग्रह' प्रथम भाग १०२० ।